कुमार कृष्णन।
“अब रघुपति राघव राजाराम पर विवाद”।
रघुपति राघव राजा राम ‘ गाँधी का प्रिय भजन था। यह भजन हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का भी हिस्सा था। गाँधी की प्रार्थना सभाओं में ‘रघुपति राघव राजा राम’ मुख्य आकर्षण का केंद्र था। भजन का इस्तेमाल पहली बार गाँधी द्वारा 1930 में दांडी मार्च के दौरान दांडी तक की 241 मील की यात्रा के दौरान एक नए कानून का विरोध करने के लिए किया गया था, जिसे अंग्रेजों ने भारतीयों को नमक बनाने या बेचने से प्रतिबंधित करने के लिए बनाया था। इस आंदोलन के दौरान गाँधी ने ‘रघुपति राघव राजा राम’ को लोकप्रिय बनाया। मार्च करने वालों ने अपने आत्मविश्वास को बनाए रखने के लिए इसे गाया था। इसने करोड़ों भारतीयों को एक दौर में राष्ट्रीय चेतना से अनुप्राणित किया था।
अब बिहार में इसी भजन पर विवाद छिड़ गया है। पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की स्मृति में पटना में आयोजित एक कार्यक्रम में उस समय बवाल हो गया जब स्थानीय लोक गायिका ने भजन ‘रघुपति राघव राजा राम’ की प्रस्तुति दी और “ईश्वर अल्लाह तेरो नाम” की पंक्तियाँ गाईं। जैसे ही लोक गायिका देवी ने ये पंक्तियां गाईं, दर्शकों के एक वर्ग ने विरोध किया और नारेबाजी शुरू कर दी। मामला बढ़ने पर गायिका देवी ने मंच से माफी मांगी। उन्हें माफी मांगने को भी कहा गया।
उन्होंने कहा कि अगर मैंने किसी की भावना को आहत किया है तो क्षमा चाहती हूं। इसके बाद वे कार्यक्रम से चलीं गईं। उन्होंने बाद में मीडिया से कहा कि मानवता सबसे बड़ा धर्म है। हिंदू धर्म सबसे बड़ा है,जो सभी धर्मों को अपने में समाहित करता है। इस दौरान पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे भी मौजूद थे जो स्थिति को संभालने के लिए आगे आए। वह लोक गायिका को मंच से उतारते भी दिखे। गायिका द्वारा माफी मांगने के बाद कार्यक्रम स्थल पर ‘जय श्री राम’ के नारे गूंज उठे। अश्विनी चौबे ने भी ‘जय श्री राम’ की हुंकार भरी।
यह घटना ‘मैं अटल रहूंगा’ शीर्षक वाले कार्यक्रम ( जो अटल जी की जयंती के अवसर पर आयोजित किया गया था) में हुई। कार्यक्रम में चौबे के अलावा डॉ. सीपी ठाकुर, संजय पासवान और शाहनवाज हुसैन भी मौजूद थे। मूल रूप से उपरोक्त भजन संत लक्ष्मण आचार्य का है जो इस प्रकार था-
रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम’
‘सुन्दर विग्रह मेघश्याम, गंगा तुलसी शालिग्राम।’
गांधी ने इसे बदल कर राष्ट्रीय आंदोलन की जरूरतों के अनुरूप बनाया। उन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता और राष्ट्रीय सहमति की जरूरत थी। गांधी ने मूल भजन की दूसरी पंक्ति को बदल कर -‘ईश्वर-अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान’ कर दिया। गाँधी को सांस्कृतिक-वैचारिक तौर पर ईश्वर और अल्ला को एक बनाने और देश में सन्मति विकसित करने की ग़र्ज थी। उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में राष्ट्रीय एकता की जरूरत थी।दरअसल उन्हें एक नया राष्ट्रवाद विकसित करने की फ़िक्र थी।इस दिशा में अपनी समझ के अनुरूप वह कोशिश कर रहे थे। हम लोगों ने यह भजन स्कूलों में प्रार्थना के तौर पर गाया। बिस्मिल्ला खान ने इस धुन को अपनी शहनाई से संवारा ।
कुछ चीजें विरासत की होती हैं।उसके सहारे हम एक विरासत संभाल रहे होते हैं-जैसे वन्दे मातरम गीत। बंकिम बाबू के उपन्यास आनंदमठ का यह गीत सन्यासी दल के मुस्लिम विरोधी अभियान का प्रस्थान गीत था। लेकिन यह राष्ट्रीय आंदोलन का गीत और नारा बन गया। इस नाम से राष्ट्रीय संघर्ष की पत्रिका निकली। वन्दे मातरम् का नारा लगाते हुए अनेक स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने प्राण उत्सर्ग किये। इसमें से अधिकांश उसकी पृष्ठभूमि से अनभिज्ञ थे। अब आज हम अपनी विरासत में जब वन्दे मातरम् को लेते हैं, तो आनंदमठ के वन्दे मातरम को नहीं, स्वतंत्रता सेनानियों के वन्दे मातरम को लेते हैं। उसी प्रकार रघुपति राघव राजा राम का भजन अब संत लक्ष्मण आचार्य का नहीं, गांधी का भजन बन चुका है और यह संप्रदाय विशेष का नहीं, राष्ट्रीय आंदोलन का गान बन चुका है। इसमें गांधी, उनका संघर्ष और राष्ट्रीय आंदोलन की स्मृतियां समाहित हैं इसका राम हिन्दू से बढ़ कर भारतीय ही नहीं वैश्विक बन जाता है।इसी भाव को इक़बाल ने राम को इमामे हिन्द कह कर व्यक्त किया था।
समारोह में जो उन्मादी भीड़ इस भजन के विरोध में उठ खड़ी हुई वह हमारे देश-समाज में बढ़ रही फिरकापरस्ती, नफरत और तंगदिली की भावना को अभिव्यक्त कर रही थी।यह भावना कई स्तरों पर विकसित हो रही है। लोग अधिक असिहष्णु हो रहे हैं। ऐसे लोगों की समझ यही होती है कि हम सही हैं और दूसरे गलत। यह भाव इसलिए पनप रहा है कि ऐसी चीजें हमारे सामाजिक जीवन में फैलाई जा रही हैं।हम खंडित इतिहास संस्कृति और परंपरा को बढ़ावा दे रहे हैं,जबकि परंपरा और संस्कृति एक सिलसिले में होती है।सिलसिले से निकाल कर जैसे ही हम किसी एक को रखते हैं, वह मर जाती है। दरअसल जो सभ्यता जितनी पुरानी होती हैं, उसकी जटिलताएं भी उतनी ही अधिक होती हैं।स्वयं जब हिन्दू परंपरा की बात करेंगे तो उसमें सिंधु सभ्यता, वैदिक सभ्यता, उपनिषदों, जैनियों, बौद्धों, लोकायतिकों की दर्शन-परंपरा से लेकर सूफियों और भक्ति-आंदोलन जैसी अनेक सांस्कृतिक सक्रियताएं समाहित हैं। हमारे राष्ट्रीय आंदोलन में ही जानें कितने तरह के विचार और बोध समाहित थे। गांधी भी थे और सावरकर अंबेडकर, सुभाष और भगत सिंह जैसे परस्पर विरोधी मतों के लोग भी।
भारत को अनेक तरह और प्रवृत्तियों के लोगों ने मिल-जुल कर गढ़ा। इसमें दार्शनिक, कवि, राजनेता, सब थे लेकिन इसके सबसे महत्वपूर्ण शिल्पकार यहाँ के लोग रहे हैं। किसान, मजदूर,कारीगर रहे हैं। आधुनिक भारत की ही बात करें तो राजा राममोहन राय, विवियन डेरोजिओ, ज्योतिबा बा फुले, सावित्री बाई फुले, रमाबाई से लेकर टैगोर, गांधी, नेहरू जैसे अब तक के हजारों लोगों ने इसे संवारने की कोशिश की है। इन सबके महत्व को हमें स्वीकार करना होगा।
लोग गांधी के विचारों से सहमत और असहमत हो सकते हैं। पर गांधी के विचारों को व्यक्त करने से रोकना, कम से कम बिहार में तो स्वीकार नहीं होना चाहिए। इस घटनाक्रम में वाल्टेयर का कथन याद आता है कि”जरूरी नहीं है कि मैं आपकी बात से सहमत रहूं, लेकिन मैं आपके बोलने के अधिकार की मरते दम तक रक्षा करुंगा।
इस मामले पर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी भी काफी नाराज नजर आईं। उन्होंने घटनाक्रम का वीडियो शेयर करते हुए लिखा, “बापू का प्रिय भजन गाने पर भाजपा नेताओं ने लोकगायिका देवी जी को माफी मांगने पर मजबूर किया। “रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम” उनसे नहीं सुना गया। दुनिया को दिखाने के लिए बापू को फूल चढ़ाते हैं लेकिन असल में उनके प्रति कोई आदर नहीं है। दिखावे के लिए बाबासाहेब अंबेडकर का नाम लेते हैं, लेकिन असल में उनका अपमान करते हैं। भाजपा को हमारी सहिष्णु और समावेशी संस्कृति-परंपरा से इतनी नफरत है कि वे हमारे महापुरुषों को बार-बार अपमानित करते हैं।” (विभूति फीचर्स)