ब्यूरो छत्तीसगढ़ः सुनील चिंचोलकर।
रश्मि रामेश्वर गुप्ता, बिलासपुर छत्तीसगढ़।
उपन्यास मां – नेकी की प्रेरणा।
माँ जब से व्हीलचेयर पर आई थी , घर में सभी की खुशी का ठिकाना नही था। मिनी को ये लगता था कि अब धीरे-धीरे माँ स्वयं ही उठकर बैठने लगेगी, चलने लगेगी। मिनी की ऊर्जा में कई गुना अधिक वृद्धि हो चुकी थी। क्यों न हो जब ईश्वर ने मिनी की प्रार्थना पर ध्यान दिया । ईश्वर की कृपा ही थी जो कि 2-3 दिन की मेहमान लगने वाली मां अब इस तरह स्वस्थ होने लगी।
जब माँ को लेकर मिनी आई थी तब वो इस बात से डरती थी कि अगर मां को कुछ भी हुआ तो मिनी पर दोषारोपण करने से कोई भी नही चूकेगा पर फिर भी उसने हिम्मत की क्योंकि ईश्वर का साथ ही नेक काम करने की प्रेरणा देता है। ईश्वर की मर्ज़ी के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता फिर मनुष्य की क्या औकात है कि वो कुछ भी कर ले।
मिनी ईश्वर को खूब धन्यवाद देती कि उनकी कृपा से मां का साथ मिनी को मिल रहा था । अब मां को ले कर आये 1 वर्ष से भी अधिक समय हो चुके थे। इन एक वर्षों में माँ कम से कम सहारा देकर बैठाने से बैठ तो जाती थी। बिस्तर से अलग होकर व्हील चेयर पर तो आई।
मनुष्य का हर अंग कितना महत्वपूर्ण होता है। किसी के अगर दोनो पैर काम नही कर रहे तो उसका जीवन कितना संघर्षमय होता है ये मिनी प्रतिदिन देख रही थी, वो भी माँ के साथ ये स्थिति देखना अत्यंत ही कष्टप्रद था परंतु फिर भी मिनी खुश थी कि उनके प्रयासों का पॉज़िटिव रिजल्ट् देखने को मिल रहा था, इससे अधिक खुशी की बात भला और क्या हो सकती थी।
मिनी का लेखन कार्य बहुत ही अच्छे मुकाम को हासिल कर रहा था। अब मिनी की साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियां बढ़ गयी थी।
मिनी को आकाशवाणी से भी आमंत्रण आने लगे थे। क्यों न हो मिनी को मां का आशीर्वाद जो मिल रहा था। उस वर्ष कला मंच का रजत जयंती वर्ष था। प्रतिवर्ष 3 दिवस का भव्य आयोजन किया जाता था। सर मिनी को ले कर इस समारोह को देखने के लिए गए। दोनो आपस में बातें करते हुए इस समारोह का आनंद ले रहे थे। मिनी ने कहा – “यहाँ सब तो ठीक है पर संचालक अगर दो होते तो कार्यक्रम में चार चाँद लग जाते।”
सर ने पूछा- “कैसे?”
मिनी ने कहा- “आपको नही लगता कि अगर कोई लड़की भी भैया के साथ संचालन करे तो ये कार्यक्रम और अधिक अच्छा लगने लगेगा।”
सर ने कह दिया- “आप संचालन करना पसंद करेंगी?”
मिनी ने भी बातों ही बातों में कह दिया- “हाँ! क्यों नही।”
मिनी ने तो ऐसे ही कह दिया। कुछ देर बाद सर की बात संस्थापक से होने लगी। सर ने भी बातों ही बातों में मिनी की बातें दोहरा दी। संस्थापक ने सीधे मिनी से कह दिया- “आपको जाना है ? आप जाइये साथ में।”
अब मिनी के सामने प्रश्न चिन्ह लग गया। अब मिनी सर की तरफ देखी और उसे समझ आया कि उसने तो ऐसे ही हाँ कह दिया था। उसे ये अंदाजा नही था कि संस्थापक महोदय सीधे आज के आज ही मंच पर भेज देंगे। मिनी भी आपनी बात को रखने के लिए जो उसने सर से कही थी, मंच पर चली गई। ये तो संयोग था कि वाकई सभी को संचालन पहले से बेहतर लगने लगा।
दूसरे दिन मिनी ने सोचा अगर आज मैं नही गयी तो लोग कहेंगे बस एक दिन के बाद मिनी डर गई ये सोंचकर दूसरे दिन भी सर के साथ चली गयी। तीसरे दिन मिनी ने सोचा अब दो दिन चली गयी तो आखरी दिन जाने में क्या हर्ज़ है। ऐसे करते उसने रजत जयंती समारोह में 3 दिन शाम 7 से रात्रि 12 बजे तक संचालन भी बड़े उत्साह से कर लिया।
वास्तव में माँ के सुधरते स्वास्थ्य ने मिनी के रग-रग में आशा और उत्साह का संचार कर दिया था। मिनी अपने आकाशवाणी में हुए प्रसारण जब मां को सुनाती थी तो मां बार -बार उसे सुनने की ज़िद करती। मां को अपार खुशी मिलती थी। ……..क्रमशः