संजय एम. तराणेकर
(कवि, लेखक व समीक्षक)
इन्दौर, (मध्यप्रदेश)
मन के तार और अल्फाज
छेड़ा ना करो मन के तारों को झनझना जाते हैं,
देखो बैठे-बैठे ही सारे अल्फाज़ निकल आते हैं।
मैंने तुम्हें कभी जिनसे मिलवाया था,
क्या? अब भी तुम्हें सब याद आते हैं!
मेरे घर के सामने से वो गुजर जाते हैं।
छेड़ा ना करो मन के तारों को झनझना जाते हैं,
देखो बैठे-बैठे ही सारे अल्फाज निकल आते हैं।
अब तो हो ही जाती है सुबह से शाम,
मुझे कोई मेरा हाल भी नहीं है पूछता!
हाँ, निकल जाते हैं सब करते राम-राम।
छेड़ा ना करो मन के तारों को झनझना जाते हैं,
देखो बैठे-बैठे ही सारे अल्फाज़ निकल आते हैं।
ज़ेहन में अब तो सिर्फ़ ख्वाब ही होते हैं,
अब वो नहीं जो कहीं आफताब होते हैं!
आँसू भी तो गंगा-जमुना के पास रोते हैं।