विवेक रंजन श्रीवास्तव।
व्यंग्य
“मेड, इन इंडिया”
मेड के बिना घर के सारे सदस्य और खासकर मैडम मैड हो जाती हैं। मेड की महिमा और उसके महात्म्य हर घर को भलीभांति पता है। कोरोना काल में जब खुद झाड़ू पोंछा, बर्तन, खाना, नाश्ता, कपड़े, काल बेल बजते ही बाहर जाकर देखना कि दरवाजे पर कौन है, यह सब करना पड़ा तब समझ आया कि इन सारे कथित नान प्रॉडक्टिव कामों का तो दिन भर कभी अंत ही नही होता। ये काम तो हनुमान जी की पूंछ की तरह बढ़ते ही जाते हैं जो बुद्धिजीवी विचारवान लोग हैं, उन्हें लगा कि वाकई मेड का वेतन बढ़ा दिया जाना चाहिये। कारपोरेट सोच वाले मैनेजर दम्पति को समझ आ गया कि असंगठित क्षेत्र की सबसे अधिक महत्वपूर्ण इकाई होती है मेड। बिना झोपड़ियों के बहुमंजिला अट्टालिकायें कितनी बेबस और लाचार हो जाती हैं, यह बात तभी एक्सप्लेन हो पाई।
भारतीय परिवेश में हाउस मेड एक अनिवार्यता है। हमारा सामाजिक ताना बाना इस तरह बुना हुआ है कि हाउस मेड यानी काम वाली हमारे घर की सदस्य सी बन जाती है। जिसे अच्छे स्वभाव की, साफसुथरा काम करने वाली, विश्वसनीय मेड मिल जावे उसके बड़े भाग्य होते हैं। हमारे देश की इकॉनामी इस परस्पर भरोसे में गुंथी हुई अंतहीन माला सी है। किस परिवार में कितने सालों से मेड टिकी हुई है, यह बात उस परिवार के सदस्यों के व्यवहार का अलिखित मापदण्ड और विशेष रूप से गृहणी की सदाशयता की द्योतक होती है।
विदेशों में तो ज्यादातर परिवार अपना काम खुद करते ही हैं, वे पहले से ही आत्मनिर्भर हैं। विदेशों में मेड लक्जरी होती है। जब बच्चे बहुत छोटे हों तब मजबूरी में हाउस मेड रखी जाती हैं। मेड की बड़ी डिग्निटी होती है। उसे वीकली आफ भी मिलता है। वह घर के सदस्य की तरह बराबरी से रहती है। कुछ पाकिस्तानी और भारतीय युवाओं ने जो पति पत्नी दोनो विदेशों में कार्यरत हैं , एक राह निकाल ली है,वे मेड रखने की बनिस्पत बारी बारी से अपने माता पिता को अपने पास बुला लेते हैं। बच्चे के दादा दादी , नाना नानी को पोते पोती के सानिध्य का सुख मिल जाता है, विदेश यात्रा और कुछ घूमना फिरना भी बोनस में हो जाता है और बच्चों का मेड पर होने वाला खर्च बच जाता है।
मेरे एक मित्र तो बहू बेटे को अमेरिका से अपने पास बुलाना ज्यादा पसंद करते हैं, स्वयं वहां जाने की अपेक्षा, क्योंकि यहां जैसे मेड वाले आराम वहां कहां ? बर्तन, कपड़े धोने सुखाने की मशीन हैं जरूर पर मशीन में कपड़े बर्तन डालने निकालने तो पड़ते ही हैं। परांठे रोटी बने बनाए भले मिल जाएं पैकेट बंद पर बाकी सारा खाना खुद बनाना होता है। यहां के ठाठ अलग हैं कि चाय भी पलंग पर नसीब हो जाती है मेड के भरोसे इसीलिए तो मेड के नखरे उठाने में मैडम जी समझौते कर लेती हैं।
सेल्फ सर्विस वाले अमरीका में होटलों में हमारे यहां की तरह कुनकुने पानी के फिंगर बाउल में नींबू डालकर हाथ धोना नसीब नहीं, वहां तो कैचप, साल्ट और स्पून तक खुद उठा कर लेना पड़ता है और वेस्ट बिन में खुद ही प्लेट डिस्पोज करनी पड़ती है। मेड की लक्जरी भारत की गरीबी और आबादी के चलते ही नसीब है। मेड इन इंडिया, कपड़े धोने, सुखाने, प्रेस करने, खाना बनाने से लेकर बर्तन धोने, घर की साफ सफाई, झाड़ू पोंछा फटका का उद्योग है, जिसके चलते रहने से ही साहब साहब हैं और मैडम मैडम। इसलिए मेड इन इंडिया खूब फले फूले, मोस्ट आर्गनाइज्ड किंतु कालोनी की मेड्स का आपस में वेल मैनेज्ड सेक्टर है मेड,इन इंडिया। इति मेड महात्म्यम। (विनायक फीचर्स)