
डॉ0 हरि नाथ मिश्र, अयोध्या (उ0प्र0)
अष्टावक्र-गीता -9
नहीं किसी को मैं लखूँ, निर्जन लगे समाज।
मोह-मुक्त अचरज यही, चाहे कल या आज।।
मेरा तन मेरा नहीं, मैं हूँ नहीं शरीर।
मैं न जीव,चैतन्य मैं, अहा!मोह गंभीर।।
चित्तवायु उठते अहा! मुझमें सिंधु अनंत।
जगत-लहर ब्रह्मांड की, उठें, न जिनका अंत।।
मेरे सिंधु अनंत में, चित्तवायु जब नष्ट।
जीव-वणिक-भव-नाव अपि, होती शीघ्र विनष्ट।।
जीव-उर्मियाँ जन्म लें, मुझमें सिंधु अपार।
कर किलोल पुनि आ मिलें, मुझमें हो लाचार।।