“जयंती का शोर, विचारों से ग़ैरहाज़िरी”, “मूर्ति की पूजा, विचारों की हत्या”, “हाथ में माला, मन में पाखंड”

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प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)

 

 

“जयंती का शोर, विचारों से ग़ैरहाज़िरी”, “मूर्ति की पूजा, विचारों की हत्या”, “हाथ में माला, मन में पाखंड”

 

 बाबा साहेब की विरासत पर सत्ता की सियासत, जयंती या सत्ता का स्वार्थी तमाशा?

 

बाबा साहब के विचारों—जैसे सामाजिक न्याय, जातिवाद का उन्मूलन, दलित-पिछड़ों को सत्ता में हिस्सेदारी, और संविधान की गरिमा की रक्षा—को आज के राजनेता पूरी तरह नजरअंदाज कर रहे हैं। राजनीतिक दल केवल वोट बैंक के लिए अंबेडकर की जयंती मनाते हैं, जबकि वे उनके विचारों से कोसों दूर हैं। जिन मुद्दों के लिए बाबा साहब ने जीवन भर संघर्ष किया—जैसे आरक्षण की सामाजिक भूमिका, जातिगत जनगणना, आर्थिक आधार पर प्रतिनिधित्व—उन्हें आज भी दरकिनार किया जा रहा है। संसद और विधानसभाओं में पूंजीपतियों, सेलेब्रिटीज़ को भेजा जा रहा है, जबकि वंचित वर्ग हाशिए पर है। क्या बाबा साहब की आत्मा तब तक संतुष्ट हो सकती है जब तक उनके सपनों का भारत साकार न हो? यदि सच में अंबेडकर को श्रद्धांजलि देनी है, तो उनके विचारों को व्यवहार में लाना होगा—वरना यह सब केवल एक दिखावा और ढोंग ही रह जाएगा।

 

देश भर में आज बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती धूमधाम से मनाई जा रही है। मंदिरों की घंटियों की तरह मंचों पर माइक बज रहे हैं, फूलों की माला और भावुक भाषणों की बाढ़ है। लेकिन इन सबके बीच एक सवाल लगातार मन को कुरेदता है — क्या यह श्रद्धांजलि है या सत्ता की साधना?

 

बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्यप्रदेश के महू में हुआ था। वे महार जाति से थे, जिसे अछूत समझा जाता था। सामाजिक बहिष्कार और अपमान के बीच उन्होंने शिक्षा हासिल की और कोलंबिया विश्वविद्यालय व लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स जैसे संस्थानों से उच्च शिक्षा प्राप्त की। यह उपलब्धि अपने आप में उस समय के भारत में एक क्रांति थी।

 

बाबा साहेब ने सामाजिक अन्याय के खिलाफ मोर्चा खोला और 1956 में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया — एक ऐसा धर्म जो समता, करुणा और ज्ञान की राह दिखाता है। 6 दिसंबर 1956 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा, लेकिन उनके विचार आज भी जीवित हैं — बशर्ते उन्हें ज़िंदा रखा जाए।

 

आज जब हम संसद और विधानसभाओं की तरफ नज़र डालते हैं, तो पाते हैं कि वहां बड़े पैमाने पर पूंजीपति, अभिनेता, खिलाड़ी मौजूद हैं। लेकिन जो बहुजन समाज सत्ता की सीढ़ी बनता है, उसे नीचे ही रहने दिया जाता है। जातिगत जनगणना से बचने वाली सरकारें, सामाजिक न्याय को स्थायी नीति में बदलने को तैयार नहीं हैं। यही कारण है कि समाज में गहराई से असमानता बनी हुई ह

 

बाबा साहब की जयंती पर करोड़ों रुपये खर्च कर देना, बड़ी रैलियां और पोस्टर लगवा देना, उनकी मूर्तियों को फूलों से ढक देना — क्या यही श्रद्धा है? क्या ये वही लोग नहीं हैं जो बाबा साहब की किताबें कभी पढ़ते तक नहीं? क्या ये वही सियासी दल नहीं हैं जिनकी नीतियां प्रत्यक्ष रूप से संविधान की आत्मा के विरुद्ध जाती हैं?

 

यह ढोंग तभी रुकेगा जब हाथी के दांत खाने और दिखाने के एक कर दिए जाएं। जब कथनी और करनी में फर्क मिटेगा। और जब शासन सत्ता में सभी को जनसंख्या के अनुपात में हिस्सेदारी मिलेगी — तभी हम कह सकेंगे कि हमने बाबा साहब को सही मायनों में श्रद्धांजलि दी है।

 

जिस बाबा साहेब ने भारत के सबसे दबे-कुचले, हाशिए पर पड़े वर्गों को आवाज दी, संविधान में उनके अधिकार सुनिश्चित किए, उन्हीं के नाम पर आज वही लोग जयंती मना रहे हैं जिन्होंने उनके विचारों को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

 

बाबा साहेब ने स्पष्ट कहा था: “मैं हिंदू के रूप में पैदा हुआ, यह मेरे बस में नहीं था, लेकिन हिंदू होकर मरूंगा नहीं — यह मेरे वश में है।” इस ऐतिहासिक उद्घोषणा को समझने के बजाय, राजनेताओं ने उन्हें मूर्तियों तक सीमित कर दिया। संविधान, जिसे उन्होंने दलितों, पिछड़ों और गरीबों की रक्षा के लिए लिखा था, उसे आज बेतरतीब तरीके से तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है।

 

बड़े दुख की बात है कि जिन दलों का जन्म ही दलितों और पिछड़ों के हक के लिए हुआ था, वे आज या तो सत्ता के लालच में चुप हैं या डर के मारे मौनव्रत धारण किए हुए हैं। बसपा जैसे दल बाबा साहेब का नाम लेकर सत्ता में आए, लेकिन आज उनके सिद्धांतों की रक्षा में सबसे पीछे हैं।

 

सिर्फ चुनावी रणनीति बनकर रह गया है बाबा साहेब का नाम। आरक्षित सीटों से विधायक-सांसद बनने वाले लोग अपने-अपने दलों की गुलामी में मग्न हैं। वे दलित हितों पर हो रहे प्रहारों को मूकदर्शक बनकर देख रहे हैं। ऐसे में एक साधारण नागरिक के तौर पर मैं, विनेश ठाकुर, इन सत्ता-भोगी प्रतिनिधियों की कठोर निंदा करता हूँ।

 

आज जो लोग बाबा साहेब को याद कर रहे हैं, उनमें से अधिकांश ने उनके विचारों पर एक कदम भी चलने का साहस नहीं दिखाया। जातिगत जनगणना, जनसंख्या के अनुपात में सत्ता में हिस्सेदारी, शिक्षा और रोज़गार में बराबरी जैसे मुद्दे आज भी लंबित हैं। इसके बजाय गरीबों को फ्री राशन देकर खुश करने की नीति अपनाई जा रही है — स्थायी रोजगार और गरिमा भरे जीवन की जगह भीख सरीखा जीवन दिया जा रहा है।

 

लोकसभा और विधानसभाओं में बड़े-बड़े उद्योगपति, अभिनेता और खिलाड़ी पहुँचते हैं, लेकिन जिनके वोटों से सरकारें बनती हैं — दलित, आदिवासी, ओबीसी — वे आज भी हाशिए पर हैं। बाबा साहेब की असली विरासत की हत्या हो चुकी है और अब उनकी जयंती सिर्फ एक राजनीतिक इवेंट बन गई है।

 

उनकी जीवनी सबको मालूम है — 14 अप्रैल 1891, महू (मध्यप्रदेश) में जन्म, अछूत मानी जाने वाली महार जाति से संबंध, बचपन में भेदभाव का शिकार, लेकिन अद्वितीय प्रतिभा से दुनिया को चौंका देने वाला व्यक्तित्व। उन्होंने पूरी दुनिया से ज्ञान अर्जित कर भारत के लिए एक ऐसा संविधान लिखा जो हर नागरिक को समानता, न्याय और स्वतंत्रता की गारंटी देता है।

 

1956 में उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाकर सामाजिक विद्रोह किया। वे जीवन भर छुआछूत, जातिवाद, असमानता और राजनीतिक उपेक्षा के खिलाफ संघर्ष करते रहे। लेकिन आज, उनके नाम पर सिर्फ भीड़ जुटाई जा रही है, विचार नहीं। राजनीतिक दलों से मेरा सीधा सवाल है — क्या आपने सामाजिक न्याय के लिए कोई ठोस कदम उठाया? जवाब स्पष्ट है: शून्य।

 

यदि वास्तव में आप बाबा साहेब की सच्ची श्रद्धांजलि देना चाहते हैं, तो एक वर्ष के लिए धार्मिक आयोजनों, दिखावटी अभियानों और मूर्ति अनावरणों का बजट काटिए। उस पैसे से सभी जातियों के लिए आर्थिक आधार पर न्याय की व्यवस्था कीजिए। सत्ता में जनसंख्या के अनुपात में हिस्सेदारी सुनिश्चित कीजिए। 50% कमीशनखोरी बंद करिए, निजीकरण की लहर पर विराम लगाइए।

 

अगर आप यह कर सकें, तो यकीन मानिए — बाबा साहेब की आत्मा कहेगी, “अब तुमने मेरे विचारों को सिर्फ याद नहीं किया, बल्कि जिया है।” वरना, हाथी के दिखाने और खाने के दांतों में फर्क बना रहेगा — और यह फर्क ही एक दिन लोकतंत्र को निगल जाएगा।

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