माता जयंती को समर्पित ध्वज मंदिर।

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रमाकांत पंत।

 

माता जयंती को समर्पित ध्वज मंदिर।

 

माँ काली व माँ भद्रकाली से पूर्व माँ के जिस स्वरुप का शब्दों के माध्यम से स्मरण किया जाता है,वह नाम है माँ जयंती का और माँ जयंती से ही शुरु होता है माँ का एक सुन्दर मन्त्र——-

जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु‍ते।

 

अर्थात् जयंती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा,धात्री, स्वाहा और स्वधा- इन नामों से प्रसिद्ध माँ जगदम्बिके आपको मेरा नमस्कार है। दुर्गा सप्तशती के अर्गलास्तोत्र का यह पहला श्लोक है। इस मन्त्र के बारे कहा गया है, यहां मंत्र सर्व सौभाग्य को प्रदान करने वाला है। इसमें आदि शक्ति मातेश्वरी के 11 नामों का स्मरण होता है, इन्हीं 11 नामों में माँ का प्रथम नाम है जयंती अर्थात् ‘जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तते इति‘। सबसे प्रमुख एवं विजयशालिनी सर्व सौभाग्य दायिनी माँ जयंती का भव्य दरबार कहां पर स्थित है इस विषय पर आज हम अपने पाठकों के सम्मुख इस दुर्लभ एवं खोजपरक आलेख के माध्यम से प्रकाश डाल रहे है।

माँ जयंती की महिमा अनंत व अगोचर है। जनपद पिथौरागढ़ के आंचल में माता जयंती का भव्य दरबार पवित्र पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। जनपद मुख्यालय से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी तय करने के पश्चात् आगे 5 किलोमीटर की दुर्गम चढ़ाई चढ़ने के बाद माँ जयंती के भव्य भवन के दर्शन होते हैं। जिस चोटी पर माता का मन्दिर विराजमान है वह पर्वत शिखर पिथौरागढ़ जनपद की सबसे ऊंची चोटियों में एक है। यहां से चारों ओर पर्वत मालाओं का नजारा बड़ा ही भव्य दिखाई पड़ता है। दूर-दूर तक फैले पर्वतों के शिखर इस चोटी के सामने बहुत ही छोटे प्रतीत होते हैं। समुद्र तल से लगभग 21 सौ मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस मंदिर को ध्वज मंदिर भी कहते हैं। माँ जयंती को समर्पित इस मंदिर से थोड़ा सा पहले एक अद्भुत गुफा है। इस गुफा में भगवान शंकर एक भव्य अलौकिक स्वरूप में पिंडी के रूप में विराजमान है जिन्हें खण्डे नाथ के नाम से पुकारा जाता है। शिव और शक्ति की यह पावन भूमि युगों- युगों से पूजनीय है। स्कंद पुराण के मानस खण्ड में यहाँ का सुन्दर वर्णन मिलता है। इस स्थान की महिमा के बारे में जब ऋषियों ने व्यास जी से पूछा ‘ध्वजपर्वत’ की स्थिति, तीर्थस्थान, नदियों का उद्गम एवं वहां स्थित शिवलिङ्गों के माहात्म्य का वर्णन करें। ध्वज पर्वत कहाँ पर स्थित है ? उस पर आरुढ़ होने का क्या फल है ? वहाँ किन देवों की पूजा होती है

ऋषियों के इस प्रश्न पर व्यासजी ने उत्तर दिया—मुनिवरों! ‘रामगङ्गा’ के बांई ओर ‘पावन’ पर्वत है। उसके दक्षिण में ‘ध्वज’ पर्वत है। उसका शिखर उन्नत है । अनेक धातुओं और औषधियों से वह प्रदीप्त है। सिद्ध, विद्याधर, यक्ष आदि के परिवारों से वह पर्वत वेष्टित है। दिव्य धातुओं की इसमें सहस्रशः खानें हैं। ‘हिमालय’ को नमस्कार करता हुआ यह ‘ध्वजा’ की तरह स्थित है। ‘श्यामा’ (काली नदी) के तीरवासी सिद्धों और चित्रसेनादि गन्धर्वों से यह सेवित है। इस पर्वत पर विशेषत: सिद्धों एवं विद्याधर-गणों का वास है। यहाँ ‘चतुर्दशी के दिन आरूढ़ होने पर कामनायें पूर्ण होती हैं। पूर्णिमा के दिन जागरण करने से आठों सिद्धियाँ प्राप्त की जाती हैं। ‘शनिप्रदोष’ के दिन वहाँ जाने पर कुछ भी शेष नहीं रह जाता

सर्वसिद्धिदायक एवं धनधान्यवर्धक ‘ध्वजेश’ का माहात्म्य बतलाते हुए व्यास जी ने कहा है कि इस स्थान पर गणनायक ‘विकुम्भ” ने ‘ भगवान शंकर’ की ध्वजा धारण की है। ‘ध्वज’ की आकृति के रूप में उन्नत शिखर पर ‘ध्वजेश’ शिव विराजमान हैं। उनका पूजन कर निःसन्देह सब सिद्धियाँ मिलती हैं । उनका पूजन न करने पर दुःख सम्भावित रहता है । ‘कनेल’ के फूलों से ‘ध्वजेश’ का पूजन करने पर सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। ‘ध्वजेश’ के अतिरिक्त कोई अन्य देव अभीष्ट सिद्धि दायक नहीं हैं। इस पर्वत पर औषधियों का विशाल भंडार बताया जाता है। इस स्थान से एक प्रसन्न नामक वैश्य की भी कथा जुड़ी हुई है। पुराणों के अनुसार वह धार्मिक, जितेन्द्रिय, मितभाषी और अतिथिपूजक था। उसी के समान उसका पुत्र ‘सत्यधर्मा’ भी बड़ा शिवभक्त एवं सत्यनिष्ठ था समय के चलते चक्र में एक बार उसे दरिद्रता ने आ घेरा। वह अपनी पत्नी समेत निर्जन वन में आ गया यहाँ एक शिवयोगी से उसकी भेंट हुई दोनों शाम्ब सदाशिव का ध्यान करते हुए ध्वज पर्वत पर पहुंचे शिव एवं शक्ति की कृपा से उन्हें यहां अलौकिक सिद्धियां प्राप्त हुई तथा ज्ञात हुआ कि चतुर्दशी को ‘ध्वजेश’ का पूजन करने पर मानवों को अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति होती है। स्कंद पुराण में कहा गया है कि जो मनुष्य एकाकी ‘ध्वजेश’ का पूजन कर रात्रिजागरण करता है, उसे सिद्धि प्राप्त होती है।

ध्वज क्षेत्र की महिमा का बखान करते हुए स्कंद पुराण के मानस में महर्षि व्यास जी ने लिखा है ‘ध्वज’ के दाहिनी ओर ‘ध्वजगुहा’ है । वहाँ शंकर का पूजन करके गङ्गा स्नान का फल प्राप्त होता है । फिर ‘ध्वज’ के पूर्व भाग में ‘सिद्धगुहा’ है, वहां ‘सिद्धेश’ का पूजन कर सिद्धजल से स्नान करने पर गूंगापन दूर होता है। ध्वज-पर्वत से ‘नन्दा’, ‘चर्मण्वती” तथा ‘सत्यवती’ ये तीन नदियाँ निकलती हैं । इनका जल पीने से गोदान का फल मिलता है। ये तीनों नदियाँ ‘काली’ (श्यामा) नदी में मिलती हैं । ‘नन्दा’ और ‘चर्मण्वती’ के मध्य ‘चर्मेश’ का पूजन कर शिवलोक प्राप्त होता है। ‘नन्दा’ में स्नान कर ‘ध्वजेश’ का पूजन करने से धन-लाभ होता है। उसके पश्चिम भाग में ‘कालिका’ का पूजन तथा कालिका-जलों में स्नान कर ‘शिवलोक’ प्राप्त होता है। ‘ध्वज’ के पश्चिम में ‘कालापी” नदी है। उसमें स्नान करने से गङ्गास्नान का फल मिलता है। उसके मूल में महादेवी और शंकर का पूजन होता है। आगे बला नदी और कालापी का सङ्गम है । वहाँ बलेश शंकर का पूजन होता है। यहां की विराट महिमां को लेकर अलौकिक गाथाओं का भंडार है, जिसे पुराणों में विस्तार के साथ पढ़ा जा सकता है माँ जयंती को समर्पित इस पावन स्थल की महिमा कुल मिलाकर अपरम्पार है।  (विभूति फीचर्स)

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