राजघाट से राजपाट तक।

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विवेक रंजन श्रीवास्तव।

 

 

         पुस्तक चर्चा

 

       राजघाट से राजपाट तक।

 

राजपाट प्राप्त करना प्रत्येक छोटे बड़े नेता का अंतिम लक्ष्य होता है। इसके लिये महात्मा गांधी की समाधि राजघाट एक मजबूत सीढ़ी होती है। गांधी के आदर्शो की बातें करता नेता, दीवार पर गांधी की तस्वीर लगाकर सही या गलत तरीकों से येन केन प्रकारेण सत्ता प्राप्त करने में जुटा हुआ है। यह लोकतंत्र का यथार्थ है। गांधी की खादी के पर्दे हटाकर जनता इस यथार्थ को अच्छी तरह देख और समझ रही है। किन्तु वह बेबस है, वह वोट दे कर नेता चुन तो सकती है किन्तु फिर चुने हुये नेता पर उसका कोई नियंत्रण नहीं रह जाता। तब नेता जी को आइना दिखाने की जिम्मेदारी व्यंग्य पर आ पड़ती है। भावना प्रकाशन, दिल्ली से सद्यः प्रकाशित व्यंग्य संग्रह राजघाट से राजपाट तक पढ़कर भरोसा जागता है कि अशोक व्यास जैसे व्यंग्यकार यह जिम्मेदारी बखूबी संभाल रहे हैं।

विचारों का टैंकर अशोक व्यास जी का पहला व्यंग्य संग्रह था, जिसे साहित्य जगत ने हाथों हाथ लिया और उस कृति को अनेक संस्थाओं ने पुरस्कृत कर अशोक जी के लेखन को सम्मान दिया है। फिर “टिकाऊ चमचों की वापसी” प्रकाशित हुआ वह भी पाठकों ने उसी गर्मजोशी से स्वीकार किया। उनके लेखन की खासियत है कि समाज की अव्यवस्थाओं, विसंगतियों, विकृतियों, बनावटी लोकाचार, कथनी करनी के अंतर, अनैतिक दुराचरण उनके पैने आब्जरवेशन से छिप नहीं सके हैं। वे निरंतर उन पर कटाक्ष पूर्ण लिख रहे हैं। अशोक व्यास किसी न किसी ऐसे विषय पर अपनी कलम से प्रहार करते दिखते हैं। “आत्म निवेदन के बहाने” शीर्षक से पुस्तक के प्रारंभिक पृष्ठों में उन्होने आत्मा से साक्षात्कार के जरिये बहुत रोचक शब्दों में अपनी प्रस्तावना रखी है।

राजघाट से राजपाट तक विभिन्न सामयिक विषयों पर चुनिंदा इकतालीस व्यंग्य लेखों का संग्रह है। शीर्षकों को रोचक बनाने के लिये कई रूपकों, लोकप्रिय मिथकों का अवलंबन लिया गया है, उदाहरण के लिये “मेरे दो अनमोल रतन आयेंगे”, “सुबह और शाम चाय का नाम, “तारीफ पे तारीफ”, “मैं और मेरा मोबाइल अक्सर ये बातें करते है” आदि लेखों का जिक्र किया जा सकता है।

         शीर्षक व्यंग्य राजघाट से राजपाट में वे लिखते हैं “ राजघाट ही वह स्थान है जो गंगाघाट के बाद सर्वाधिक उपयोग में आता है। जैसे गंगा घाट पर स्नान करके ऐसा लगता है कि इस शरीर ने जो भी उलटे सीधे धतकरम किये हैं वह सब साफ होकर डाइक्लीन किये हुए सूट की तरह पार्टी में पहनने लायक हो जाता है उसी प्रकार राजघाट तो गंगाघाट से भी पवित्र स्थान बनता जा रहा है। इस घाट पर आकर स्वयं साफ़ झक्कास तो हो जाते हैं, लगे हाथ क्षमा माँगने का भी चलन है। इस घाट पर देशी तो देशी-विदेशी संतों की भीड़ भी लगती रहती है। ” इस अंश को उधृत करने का आशय मात्र यह है कि अशोक व्यास की सहज प्रवाहमान भाषा, सरल शब्दावली और वाक्य विन्यास से पाठक रूबरू हो सकें। हिन्दी दिवस पर हिंदी की बातें में वे लिखते हैं “तुम हिन्दी वालों की एक ही खराबी है, दिमाग से ज्यादा दिल से सोचते हो” भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के वर्षो बाद भी देश में भाषाई विवाद सुलगता रहता है। राजनेता अपनी रोटी सेंकते रहते हैं। यह विडम्बना ही है। धारदार कटाक्ष, मुहावरों लोकोक्तियों का समुचित प्रयोग, कम शब्दों में बड़ी बात समेटने की कला अशोक व्यास का अभिव्यक्ति कौशल है । वे तत्सम शब्दों के मकड़जाल में उलझाये बगैर अपने पाठक से उसके बोलचाल के लहजे में अंग्रेजी की हिन्दी में आत्मसात शब्दावली का उपयोग करते हुये सीधा संवाद करते हैं। रचनाओं का लक्षित प्रहार करने में वे सफल हुये हैं। यूं तो सभी लेख अशोक जी ने चुनकर ही किताब में संजोये है किन्तु मुझे नंबरों वाला शहर, मिशन इलेक्शन, सरकार की नाक का बाल, हर समस्या का हल आज नहीं कल, चुनावी मौसम, आदि व्यंग्य बहुत प्रभावी लगे। रवीन्द्र नाथ त्यागी ने लिखा है “हमारे संविधान में हमारी सरकार को एक प्रजातान्त्रिक सरकार’ कह कर पुकारा गया है पर सच्चाई यह है कि चुनाव सम्पन्न होते ही ‘प्रजा’ वाला भाग जो है वह लुप्त हो जाता है और ‘तन्त्र’ वाला जो भाग होता है वही, सबसे ज्यादा शक्तिशाली हो जाता है।” अशोक व्यास उसी सत्य को स्वीकारते और अपने व्यंग्य कर्म में आगे बढ़ाते व्यंग्य लेखक हैं, जो अपने लेखन से मेरी आपकी तरह ही चाहते हैं कि तंत्र लोक का बने। आप का कौतुहल उनकी लेखनी के प्रति जागा ही होगा, तो पुस्तक खरीदिये और पढ़िये । पैसा वसूल वैचारिक सामग्री मिलने की गारंटी है।  (विभूति फीचर्स)

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