जंगल उजड़ते रहे और हिरण मरते रहे, पर मुक़दमा किस पर चले?

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प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

 आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)

 

 

 

जंगल उजड़ते रहे और हिरण मरते रहे, पर मुक़दमा किस पर चले?

 

भारत में पर्यावरणीय न्याय के दोहरे मापदंड है। एक ओर, अभिनेता सलमान खान पर एक हिरण के शिकार का वर्षों तक मुक़दमा चलता है, जबकि दूसरी ओर, हैदराबाद में एक पूरे जंगल को उजाड़ दिया जाता है—जिसमें दर्जनों हिरण मारे जाते हैं—लेकिन कोई कार्रवाई नहीं होती। क्यों व्यक्तिगत अपराधियों को कठघरे में खड़ा किया जाता है, जबकि संस्थागत अपराधों पर कानून मौन हो जाता है। साथ ही यह पर्यावरण संरक्षण कानूनों की अक्षमता, मीडिया की चुप्पी और समाज की निष्क्रियता है। यह जरूरी है कि वन्यजीवों और जंगलों की रक्षा के लिए आवाज़ उठाएं और न्याय की परिभाषा को व्यापक और निष्पक्ष बनाएं।

सालों पहले बॉलीवुड अभिनेता सलमान खान पर काले हिरण (ब्लैकबक) के शिकार का मामला दर्ज हुआ था। वह मामला आज भी अदालतों की फाइलों में जीवित है, चर्चा में है, और उसके जरिये यह संदेश दिया जाता है कि “कानून के सामने सभी समान हैं।” लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? आज जब हैदराबाद जैसे शहर के बाहर एक पूरा जंगल नष्ट कर दिया जाता है, जहाँ दर्जनों हिरणों की जान जाती है, तो न तो खबरें बनती हैं, न जांच बैठती है और न ही कोई मुकदमा चलता है। क्या कानून सिर्फ उन्हीं पर लागू होता है जो प्रसिद्ध हैं, और संस्थाएं या सरकारें इससे परे हैं?

 

वन्यजीव और पर्यावरण संरक्षण कानून

 

भारत में पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण के लिए कई सख्त कानून मौजूद हैं। भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत किसी भी संरक्षित जीव की हत्या, पकड़ या उसे नुकसान पहुंचाना दंडनीय अपराध है। वहीं, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा और प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए एक व्यापक कानूनी ढांचा प्रस्तुत करता है। लेकिन ये कानून कितने प्रभावी हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उन्हें लागू करने की राजनीतिक और सामाजिक इच्छाशक्ति कितनी है।

 

दोहरे मापदंड: व्यक्तियों पर सख्ती, संस्थाओं पर मौन

 

सलमान खान जैसे अभिनेता के खिलाफ मामला इसलिए सुर्खियों में रहा क्योंकि वह एक प्रसिद्ध चेहरा थे। उन्हें कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ा, जेल भी जाना पड़ा, भले ही बाद में जमानत मिल गई। यह दिखाने के लिए पर्याप्त था कि कानून काम कर रहा है। पर जब बात किसी कॉर्पोरेट प्रोजेक्ट, सरकारी योजना या शहरी विकास परियोजना की आती है, जो एक साथ सैकड़ों पेड़ों और दर्जनों जानवरों की बलि लेती है, तो प्रशासन मौन हो जाता है। न मुकदमा, न मीडिया ट्रायल, न जनआंदोलन।

 

हैदराबाद की घटना: जंगल की मौत, हिरणों का नरसंहार

हैदराबाद के बाहरी इलाके में एक बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजना के तहत जंगल का एक विशाल क्षेत्र साफ कर दिया गया। इस क्षेत्र में रहने वाले हिरण, नीलगाय, खरगोश और कई पक्षियों की प्राकृतिक निवास स्थली नष्ट हो गई। सूत्रों के अनुसार, जंगल की सफाई के दौरान दर्जनों हिरण मारे गए, कुछ मशीनों की चपेट में आए, तो कुछ भोजन और पानी की कमी से मारे गए। इस पर कोई औपचारिक आंकड़ा या सरकारी रिपोर्ट नहीं आई। कारण साफ है—इसका जिम्मेदार कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि ‘प्रोजेक्ट’ था। और प्रोजेक्ट्स पर मुकदमा नहीं चलता।

 

मीडिया और न्याय प्रणाली की भूमिका

यह भी गौर करने योग्य है कि मीडिया की भूमिका भी इन दो चेहरों वाली न्याय व्यवस्था को बनाए रखने में मदद करती है। जहां एक ओर सेलेब्रिटी केस महीनों तक चैनलों पर बहस का मुद्दा बनते हैं, वहीं दूसरी ओर हैदराबाद जैसी घटनाओं की खबरें स्थानीय अख़बारों के कोनों में दब जाती हैं या पूरी तरह नज़रअंदाज़ हो जाती हैं। न्याय प्रणाली भी अक्सर ऐसे मामलों को गंभीरता से नहीं लेती जब तक कि कोई जनहित याचिका (PIL) दायर न की जाए या कोई एनजीओ इस पर विशेष ध्यान न दे।

हमारी भूमिका: सवाल पूछना जरूरी है

समाज का भी दायित्व है कि वह ऐसे दोहरे मापदंडों पर सवाल उठाए। जब एक हिरण के शिकार पर हम नाराज़ होते हैं, तो सैकड़ों जानवरों की मौत पर हम क्यों चुप हो जाते हैं? क्या जंगल सिर्फ विकास के नाम पर बलिदान चढ़ाने के लिए हैं? क्या विकास की परिभाषा में प्रकृति का विनाश अनिवार्य है? हमें इन सवालों को अपने शहर, राज्य और देश के प्रशासन से पूछना होगा।

 

कानूनी समाधान और संभावनाएं

इस तरह की घटनाओं के खिलाफ राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) में मामला दायर किया जा सकता है। जनहित याचिकाएं (PIL) उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की जा सकती हैं। पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) की प्रक्रियाएं पारदर्शी और मजबूत की जानी चाहिएं, ताकि किसी भी परियोजना को जंगलों को नुकसान पहुँचाने से पहले कठोर जांच से गुजरना पड़े।

 

जन आंदोलन और युवाओं की भागीदारी

इतिहास गवाह है कि जब-जब जन आंदोलनों ने पर्यावरण की रक्षा के लिए आवाज़ उठाई है, तब-तब व्यवस्थाओं को झुकना पड़ा है। आज भी जरूरत है कि छात्र, युवा, पर्यावरण प्रेमी, पत्रकार और जागरूक नागरिक मिलकर इस प्रकार के जंगल विध्वंस के खिलाफ संगठित हो जाएं। सोशल मीडिया एक सशक्त माध्यम हो सकता है, लेकिन उससे आगे जाकर जमीन पर भी बदलाव की मांग करनी होगी।

 

न्याय का पुनर्परिभाषण

सलमान खान पर मुकदमा इसलिए नहीं गलत था क्योंकि वह अकेले दोषी थे, बल्कि इसलिए कि वह अकेले दोषी नहीं थे। असली समस्या यह है कि बाकी दोषी लोग, संस्थाएं और परियोजनाएं कभी कटघरे में नहीं खड़ी होतीं। जंगल का कटना और हिरणों का मरना अगर अपराध है, तो चाहे वह किसी भी रूप में हो, उस पर कार्रवाई समान होनी चाहिए।

अगर हम जंगलों को यूँ ही उजड़ते देखते रहे, और कानून को सिर्फ कुछ चेहरों तक सीमित रखते रहे, तो वह दिन दूर नहीं जब यह देश प्राकृतिक संसाधनों से तो खाली हो ही जाएगा, साथ ही न्याय और नैतिकता से भी।

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