कोचिंग इंडस्ट्री की मनमानी: अभिभावकों और छात्रों के भविष्य से खिलवाड़।

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प्रियंका सौरभ 

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, 

आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)

 

कोचिंग इंडस्ट्री की मनमानी: अभिभावकों और छात्रों के भविष्य से खिलवाड़।

 

ALLEN Career Institute, हिसार प्रकरण पर एक सख्त सवाल।

 

हिसार स्थित ALLEN Career Institute पर अभिभावकों ने आरोप लगाए हैं कि संस्थान ने उनके बच्चों का एक शैक्षणिक वर्ष बर्बाद कर दिया और अब जबरन फीस वसूली कर रहा है। यह घटना कोचिंग इंडस्ट्री की अनियंत्रित और मुनाफाखोर प्रवृत्ति को उजागर करती है। देश में कोचिंग संस्थानों पर कोई प्रभावी निगरानी तंत्र नहीं है, जिससे छात्र और अभिभावक शोषण का शिकार हो रहे हैं। लेख में कोचिंग सिस्टम को रेगुलेट करने, पारदर्शिता बढ़ाने, फीस नियंत्रण, और मानसिक स्वास्थ्य सहायता जैसे उपायों की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। शिक्षा को व्यापार नहीं, सेवा मानते हुए जवाबदेही तय करने की अपील की गई है।

शिक्षा का उद्देश्य केवल अंकों और रैंकों की दौड़ नहीं है, बल्कि यह एक पीढ़ी को संवारने की प्रक्रिया है। लेकिन जब यह प्रक्रिया मुनाफाखोरी के जाल में फँस जाए, तो न केवल एक छात्र का भविष्य दांव पर लग जाता है, बल्कि अभिभावकों का भरोसा और सामाजिक विश्वास भी दरक जाता है। हाल ही में हरियाणा के हिसार में स्थित नामी कोचिंग संस्थान ALLEN Career Institute पर लगे आरोपों ने इसी हकीकत को उजागर किया है।

 

गंभीर आरोप, गहरी निराशा

 

कुछ अभिभावकों ने आरोप लगाया है कि ALLEN संस्थान ने न केवल उनके बच्चों का एक वर्ष बर्बाद कर दिया, बल्कि अब फीस की जबरन वसूली की जा रही है। उनका कहना है कि क्लासरूम्स में पढ़ाई का स्तर बेहद कमजोर था, अनुभवी शिक्षकों की जगह बार-बार स्टाफ बदला गया और छात्रों को कोई ठोस मार्गदर्शन नहीं मिला। कोचिंग में दाखिला लेते समय जो वादे किए गए थे, वे सिर्फ प्रचार का हिस्सा थे। जब इन खामियों की शिकायत की गई, तो संस्थान के प्रबंधकों ने रिफंड देने से साफ इनकार कर दिया और उल्टे कानूनी कार्रवाई की धमकी दी।

यह कोई एक संस्थान की कहानी नहीं है, बल्कि कोचिंग उद्योग में व्याप्त एक व्यापक समस्या की मिसाल है।

 

कोचिंग उद्योग: एक बेताज बादशाह

 

पिछले दो दशकों में देश में कोचिंग इंडस्ट्री ने एक समानांतर शिक्षा व्यवस्था का रूप ले लिया है। राजस्थान के कोटा से लेकर दिल्ली, हैदराबाद, पटना, और अब छोटे शहरों जैसे हिसार तक, कोचिंग सेंटरों की भरमार हो गई है। इनमें से कई संस्थान अपने आप को “India’s No.1” बताकर करोड़ों का कारोबार कर रहे हैं। जेईई, नीट, यूपीएससी, बोर्ड परीक्षाएं—हर परीक्षा की तैयारी के लिए एक ‘ब्रांड’ मौजूद है। लेकिन जब शिक्षा का यह मॉडल केवल व्यवसायिक हितों पर टिका हो, तो नतीजे भयावह होते हैं।

 

अभिभावकों की मजबूरी और छात्रों पर दबाव

 

आजकल लगभग हर अभिभावक अपने बच्चों को किसी न किसी कोचिंग संस्थान में भेजने को मजबूर हैं। सरकारी स्कूलों और कई प्राइवेट स्कूलों की गुणवत्ता इतनी गिर चुकी है कि प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग ही एकमात्र विकल्प बचा है। ऐसे में कोचिंग संस्थान मनमानी फीस वसूलते हैं—कभी 1 लाख, कभी 3 लाख, और कभी-कभी इससे भी ज़्यादा। इस प्रक्रिया में न केवल मध्यवर्गीय और निम्न-मध्यम वर्गीय परिवार आर्थिक रूप से टूटते हैं, बल्कि बच्चे मानसिक दबाव, अवसाद और आत्मसम्मान की जटिलताओं से भी जूझते हैं। कोटा जैसे शहरों में आत्महत्याओं की बढ़ती घटनाएं इसका कड़वा प्रमाण हैं।

 

रेगुलेशन का अभाव: सरकार की चुप्पी

 

भारत में कोचिंग संस्थानों के लिए कोई ठोस नियामक प्रणाली नहीं है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जो अरबों का कारोबार करता है, लेकिन जिस पर न कोई शैक्षणिक नियंत्रण है, न प्रशासनिक। न तो इनके पाठ्यक्रमों की निगरानी होती है, न ही इनकी फीस संरचना पर कोई नियम लागू होता है। यह “शिक्षा” के नाम पर चलने वाला मुनाफाखोरी का कारोबार बन चुका है। हिसार में जो कुछ हुआ, वह इसलिए संभव हो सका क्योंकि संस्थान को यह यकीन है कि उनके खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं होगी। स्थानीय प्रशासन, शिक्षा विभाग और सरकार की भूमिका केवल ‘नोटिस भेजने’ तक सीमित रहती है, और अंततः यह नोटिस भी फाइलों में दफन हो जाते हैं।

 

उपभोक्ता अधिकार और शिक्षा का सवाल

 

एक समय था जब शिक्षा को सेवा माना जाता था, लेकिन अब यह एक पूर्ण उपभोक्ता उत्पाद बन चुकी है। ऐसे में क्या छात्रों और अभिभावकों के पास उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत अपने अधिकारों का उपयोग करने का विकल्प नहीं होना चाहिए? क्या शिक्षा सेवा देने वाले संस्थानों को गुणवत्ता, पारदर्शिता और जवाबदेही के मानकों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए? यदि कोई छात्र एक वर्ष तक पढ़ाई करता है और अंत में उसे यही पता चलता है कि उसे गुमराह किया गया, तो क्या उसे न्याय नहीं मिलना चाहिए? क्या फीस वापसी एक बुनियादी उपभोक्ता अधिकार नहीं है?

 

समाधान की दिशा में

 

रेगुलेटरी बॉडी की स्थापना: सरकार को कोचिंग संस्थानों के लिए एक केंद्रीय नियामक संस्था बनानी चाहिए जो इनकी मान्यता, फीस ढांचा, फैकल्टी योग्यता, और शिकायत निवारण व्यवस्था की निगरानी करे। फीस नियंत्रण कानून: जैसे निजी स्कूलों के लिए फीस नियंत्रण समितियाँ बनी हैं, उसी प्रकार कोचिंग संस्थानों के लिए भी राज्य स्तरीय समितियाँ बनाई जानी चाहिए जो शुल्क को लेकर पारदर्शिता सुनिश्चित करें।

रिफंड और शिकायत प्रणाली: प्रत्येक संस्थान को छात्र और अभिभावकों की शिकायतों को सुनने और उचित रिफंड नीति लागू करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। मानसिक स्वास्थ्य सहायता: छात्रों पर बढ़ते दबाव को देखते हुए, कोचिंग संस्थानों में काउंसलिंग सेवाएं अनिवार्य की जानी चाहिए।

स्थानीय निगरानी समितियाँ: जिला स्तर पर शिक्षाविदों, प्रशासनिक अधिकारियों और सामाजिक संगठनों की समितियाँ बनाई जाएँ जो इन संस्थानों की नियमित समीक्षा करें।

 

शिक्षा सेवा है, व्यापार नहीं

 

              हिसार की घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम शिक्षा को एक सेवा के रूप में देख पा रहे हैं, या वह केवल एक बाजार उत्पाद बन चुकी है। जब तक कोचिंग इंडस्ट्री को रेगुलेट नहीं किया जाएगा, तब तक न जाने कितने अभिभावक आर्थिक रूप से टूटते रहेंगे और न जाने कितने छात्रों का भविष्य अधर में लटकता रहेगा। शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षा पास करवाना नहीं है, बल्कि यह नैतिकता, जवाबदेही और सामाजिक न्याय के मूल्यों की भी शिक्षा होनी चाहिए। यदि यह खुद अन्याय और लालच का केंद्र बन जाए, तो यह पूरे समाज के लिए एक खतरे की घंटी है। अब समय आ गया है कि सरकार, समाज और शिक्षा विशेषज्ञ मिलकर इस ‘अनियंत्रित उद्योग’ को दिशा दें, ताकि हर बच्चे को न केवल परीक्षा की तैयारी मिले, बल्कि जीवन की तैयारी भी।

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