“जनता का धन, निजी लाभ: खिलाड़ियों के इनाम पर सवाल” पदक नहीं मिला, पर ईनाम मिल गया — क्या यह नैतिकता है?

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डॉ. सत्यवान सौरभ

हरियाणा

 

परिणाम चाहे जो भी हो, ईनाम देना जरूरी। 

 

“जनता का धन, निजी लाभ: खिलाड़ियों के इनाम पर सवाल”

पदक नहीं मिला, पर ईनाम मिल गया — क्या यह नैतिकता है?

 

चार करोड़ रुपये — एक बड़ी राशि है। यह पैसा किसी व्यक्तिगत कोष से नहीं आया, बल्कि यह जनता के खून-पसीने की कमाई है। क्या कोई भी सरकार अपनी मर्ज़ी से यह तय कर सकती है कि किसे जनता का पैसा “इनाम” के नाम पर दिया जाए, वो भी बिना किसी औचित्य के? भारत जैसे देश में, जहां सरकारी स्कूलों की छतें टपकती हैं, अस्पतालों में दवा नहीं मिलती, वहां एक खिलाड़ी को उसकी गलती के बावजूद करोड़ों की राशि देना सामाजिक अन्याय है। इससे यह संदेश जाता है कि नाम और प्रभाव, नैतिकता और ज़िम्मेदारी से ऊपर हैं। जब एक खिलाड़ी अपने कर्तव्य में विफल हो, तो क्या उसे सार्वजनिक धन से पुरस्कृत किया जाना चाहिए? यह घटना केवल व्यक्तिगत नैतिकता पर नहीं, बल्कि सरकारी नीतियों और खेल संस्कृति पर भी सवाल खड़े करती है। यह निर्णय भ्रष्टाचार और नैतिक पतन का प्रतीक है, जो न केवल करदाताओं के पैसों का दुरुपयोग है, बल्कि युवाओं के लिए गलत उदाहरण भी स्थापित करता है। एक खिलाड़ी का आदर्श बनना केवल पदक जीतने से नहीं, बल्कि चरित्र और ज़िम्मेदारी निभाने से तय होता है।

 

-डॉ. सत्यवान सौरभ

 

भारत में खेल सिर्फ़ जीत और हार का मामला नहीं होते; वे राष्ट्रीय गौरव, प्रेरणा और जनभावनाओं से जुड़े होते हैं। जब कोई खिलाड़ी ओलंपिक जैसे वैश्विक मंच पर देश का प्रतिनिधित्व करता है, तो वह सिर्फ़ अपनी मेहनत का नहीं, बल्कि पूरे देश की उम्मीदों का भार उठाता है। ऐसे में अगर वही खिलाड़ी न केवल प्रदर्शन में विफल हो, बल्कि नैतिक रूप से भी questionable निर्णय ले — तो यह एक गहरी पीड़ा और चिंता का विषय बन जाता है।

 

हाल ही में चर्चित पहलवान ने हरियाणा सरकार से ₹4 करोड़ का नकद इनाम स्वीकार किया, जबकि उन्हें पेरिस ओलंपिक 2024 के फाइनल मुकाबले में महज़ 100 ग्राम वज़न ज़्यादा होने के कारण अयोग्य घोषित कर दिया गया था। यह घटना न सिर्फ़ खेल प्रशासनों के लचर प्रबंधन की पोल खोलती है, बल्कि उस खिलाड़ी की नैतिकता पर भी गंभीर सवाल खड़े करती है, जिसे कभी देश की बेटियों की प्रेरणा माना जाता था।

 

विफलता और इनाम — एक विषम समीकरण

 

यह बात समझ से परे है कि किसी खिलाड़ी को उसकी सफलता पर पुरस्कार मिलना तो तर्कसंगत है, पर विफलता के बावजूद उसे भारी भरकम सरकारी इनाम क्यों? क्या यह व्यवस्था का ढुलमुलपन नहीं है? क्या यह उसी करदाता के पैसे का दुरुपयोग नहीं, जो दिन-रात मेहनत करता है और जिसका पैसा सरकार के खजाने में जाता है?

 

चर्चित पहलवान के पास हरियाणा सरकार ने विकल्प दिए थे — सरकारी नौकरी या नकद राशि। उन्होंने बिना झिझक चार करोड़ रुपये की राशि चुनी। यह वही पहलवान हैं, जिन्होंने एक समय खेल में यौन शोषण के विरुद्ध आवाज़ बुलंद की थी। 2023 में उन्होंने बृजभूषण शरण सिंह के ख़िलाफ़ मोर्चा संभाला था और पूरे देश में महिला खिलाड़ियों की सुरक्षा पर बहस छेड़ दी थी। ऐसे में यह उम्मीद करना स्वाभाविक था कि वे केवल नैतिकता की राह पर चलेंगी। लेकिन उन्होंने इस उम्मीद को झुठला दिया।

 

क्या यह भ्रष्टाचार नहीं?

 

जब कोई व्यक्ति अपनी विफलता पर भी सरकारी इनाम ले, और वह भी उस इनाम को “चुन” कर स्वीकार करे, तो उसे क्या कहा जाए? यह — स्पष्ट शब्दों में — भ्रष्टाचार है। यह उस मानसिकता को दर्शाता है जहां कुछ नामचीन चेहरे व्यवस्था का लाभ उठाने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हैं, और जनता मूकदर्शक बनी रहती है।

 

यह मामला सिर्फ़ चर्चित पहलवान का नहीं है; यह पूरे सिस्टम की एक बड़ी खामी को उजागर करता है। क्या राज्य सरकारों का काम अब “भावनात्मक तुष्टिकरण” बन गया है? जहां परिणाम चाहे जो भी हों, इनाम देना ज़रूरी हो गया है? इससे न सिर्फ़ खेलों की गरिमा गिरती है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी ग़लत संदेश जाता है।

 

असफलता की ज़िम्मेदारी कौन ले?

 

ओलंपिक में प्रतिनिधित्व करना अपने आप में गौरव की बात है, लेकिन 100 ग्राम वजन अधिक होना कोई सामान्य त्रुटि नहीं है। यह एक पेशेवर खिलाड़ी की ज़िम्मेदारी है कि वह फिटनेस, अनुशासन और तैयारी में कोई कसर न छोड़े। जब एक अंतरराष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी ऐसी लापरवाही करती है, तो यह व्यक्तिगत विफलता नहीं, बल्कि पूरे खेल प्रबंधन पर प्रश्नचिह्न है। और ऐसे में इनाम की बात करना, नैतिक हास्य जैसा प्रतीत होता है।

 

यह पैसा किसका है?

 

चार करोड़ रुपये — एक बड़ी राशि है। यह पैसा किसी व्यक्तिगत कोष से नहीं आया, बल्कि यह जनता के खून-पसीने की कमाई है। क्या कोई भी सरकार अपनी मर्ज़ी से यह तय कर सकती है कि किसे जनता का पैसा “इनाम” के नाम पर दिया जाए, वो भी बिना किसी औचित्य के?

 

भारत जैसे देश में, जहां सरकारी स्कूलों की छतें टपकती हैं, अस्पतालों में दवा नहीं मिलती, वहां एक खिलाड़ी को उसकी गलती के बावजूद करोड़ों की राशि देना सामाजिक अन्याय है। इससे यह संदेश जाता है कि नाम और प्रभाव, नैतिकता और ज़िम्मेदारी से ऊपर हैं।

 

एक प्रेरणा से विवाद तक

 

चर्चित पहलवान परिवार से आती हैं, जिसने महिला खिलाड़ियों की एक पूरी पीढ़ी को प्रेरित किया है। “दंगल” फिल्म की कहानियों से लेकर उनकी असल ज़िंदगी की लड़ाइयों तक, वह लंबे समय तक एक ‘रोल मॉडल’ बनी रहीं। पर एक गलत निर्णय वह छवि तोड़ देता है जिसे सालों में बनाया गया हो।

 

यदि वे वास्तव में सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग हैं — जैसा कि उन्होंने अपने आंदोलन में दिखाया था — तो उन्हें यह पैसा विनम्रतापूर्वक लौटाना चाहिए था। या फिर, यदि स्वीकार भी किया, तो उसे किसी खेल फंड या महिला खिलाड़ियों के कल्याण में लगाना चाहिए था।

 

हमें क्या चाहिए — प्रतिभा या नैतिकता?

 

इस घटना ने एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर किया है कि क्या हमें सिर्फ़ मेडल चाहिए, या चरित्रवान खिलाड़ी भी चाहिए? जब तक खिलाड़ी स्वयं को सिर्फ़ “प्रदर्शन आधारित मशीन” नहीं, बल्कि समाज का एक नैतिक स्तंभ समझेंगे, तब तक खेलों की आत्मा ज़िंदा रहेगी।

 

पहलवान को आज introspect करने की जरूरत है। क्या वे सिर्फ़ एक कुश्ती की चैंपियन बनना चाहती हैं, या एक ऐसे आदर्श की प्रतीक, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए मिसाल बने? सरकारों को भी अब बंद कमरे में होने वाले “इनाम वितरण” पर पुनर्विचार करना चाहिए। पारदर्शिता, जवाबदेही और नैतिकता — यही लोकतंत्र और खेलों की असली जीत है।

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