सत्ता, शहादत और सवाल: जलियांवाला बाग की आज की प्रासंगिकता

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सत्यवान सौरभ,

कवि, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,

बड़वा (सिवानी) भिवानी, हरियाणा।

 

सत्ता, शहादत और सवाल: जलियांवाला बाग की आज की प्रासंगिकता

 

जलियांवाला बाग हत्याकांड (1919) केवल ब्रिटिश अत्याचार का प्रतीक नहीं, बल्कि आज के भारत में सत्ता और लोकतंत्र के बीच जटिल रिश्ते का प्रतिबिंब भी है। जनरल डायर द्वारा किए गए नरसंहार ने स्वतंत्रता संग्राम को दिशा दी, लेकिन यह भी सिखाया कि जब सत्ता निरंकुश हो जाए और जनता मौन, तो इतिहास रक्त से लिखा जाता है। अगर लोकतंत्र में विरोध को अपराध बना दिया जाए और सवाल उठाने वालों को दबा दिया जाए, तो हम उसी राह पर हैं जहाँ से जलियांवाला बाग जैसी त्रासदियाँ जन्म लेती हैं। हमें शहादत की स्मृति को ज़िंदा रखना होगा — न केवल श्रद्धांजलि के रूप में, बल्कि सतत चेतावनी और लोकतांत्रिक जिम्मेदारी के रूप में। जलियांवाला बाग का संदेश आज भी यही है: सत्ता को सवालों से डरना नहीं चाहिए, बल्कि जवाब देना सीखना चाहिए।

 

13 अप्रैल 1919, अमृतसर। वैसाखी का दिन। हजारों लोग जलियांवाला बाग में एकत्र हुए थे — कुछ रॉलेट एक्ट के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध के लिए, तो कुछ महज़ त्योहार मनाने। तभी ब्रिटिश सेना के ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड डायर ने अपनी टुकड़ी के साथ प्रवेश किया, बाग के एकमात्र द्वार को बंद कराया, और बिना किसी चेतावनी के भीड़ पर गोलियां चलवा दीं। लगभग दस मिनट में 1650 गोलियां चलाई गईं।

सैकड़ों की जान गई, हजारों घायल हुए। दीवारें खून से लथपथ हो गईं। और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक निर्णायक मोड़ आया। जलियांवाला बाग हत्याकांड सिर्फ एक ऐतिहासिक त्रासदी नहीं थी, वह साम्राज्यवादी दमन की पराकाष्ठा थी। लेकिन आज, 100 साल से अधिक समय बीत जाने के बाद, हमें खुद से पूछना होगा — क्या जलियांवाला बाग केवल इतिहास की एक दुखद कहानी है, या फिर एक ऐसा आईना है जिसमें आज का लोकतंत्र भी देखा जा सकता है?

 

जनरल डायर से लेकर आज की सत्ता तक

 

ब्रिगेडियर जनरल डायर ने इस नरसंहार को “आवश्यक कार्रवाई” बताया था। ब्रिटिश साम्राज्य ने उसे डांटा नहीं, बल्कि कुछ ने तो उसे “असली देशभक्त” भी कहा। यह घटना हमें यह समझाती है कि जब सत्ता को जवाबदेही से मुक्त कर दिया जाता है, तब वह कितनी क्रूर हो सकती है। आज, जब शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारी किसानों पर लाठीचार्ज होता है, विश्वविद्यालयों में छात्रों को पीटा जाता है, पत्रकारों को जेल में डाला जाता है, और असहमति को “देशद्रोह” का नाम दे दिया जाता है, तब यह सवाल उठता है — क्या सत्ता की वही ‘डायर मानसिकता’ आज भी जीवित है?

 

विरोध और लोकतंत्र: एक नाजुक रिश्ता

 

लोकतंत्र की बुनियाद असहमति पर टिकी होती है। यदि लोग सवाल न करें, आलोचना न करें, और सत्ता से जवाबदेही न मांगें, तो लोकतंत्र धीरे-धीरे एक सत्तावादी ढांचे में तब्दील हो सकता है। जलियांवाला बाग में निहत्थे लोग मारे गए क्योंकि उन्होंने सवाल उठाए थे। आज अगर सवाल उठाने वालों को “राष्ट्रद्रोही” कहा जाता है, तो क्या हमने वाकई इतिहास से कुछ सीखा है? जब सवाल पूछना गुनाह बन जाए, और सत्ता खुद को “राष्ट्र” घोषित कर दे, तब लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी बजती है।

 

इतिहास को सजावटी न बनाएं

 

2021 में जब जलियांवाला बाग स्मारक का नवीनीकरण किया गया, तो उस पर तीखी आलोचना हुई। रंगीन लाइटें, सजावटी गलियारे, डिजिटल शो — सब कुछ जैसे शहादत को “इवेंट” में बदलने का प्रयास था।

 

क्या शहीदों की यादें सेल्फी पॉइंट बन जानी चाहिए?

 

इतिहास का काम केवल गौरव गान नहीं है, उसका उद्देश्य चेतावनी देना भी है। जब हम अपने अतीत के दर्द को केवल उत्सव में बदल देते हैं, तो हम उस चेतावनी को नजरअंदाज कर देते हैं। जलियांवाला बाग का नवीनीकरण एक उदाहरण है कि कैसे हम इतिहास की आत्मा खो सकते हैं, अगर हम केवल उसकी सतह पर सजावट करने लगें।

 

सत्ता की भाषा बदली है, मंशा नहीं

 

ब्रिटिश सत्ता ने विरोध को देश के खिलाफ समझा। आज जब हमारे अपने लोकतांत्रिक संस्थान, जनता की आवाज को “असहज” मानकर दबाते हैं, तो वह भी लोकतंत्र का हनन है। इंटरनेट शटडाउन, मीडिया पर नियंत्रण, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला — ये सब आधुनिक भारत के “नरसंहार” हैं। फर्क इतना है कि अब बंदूक की जगह डंडा है, और डायर की जगह सिस्टम है। पिछले वर्षों में हुए आंदोलन — जैसे नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन, किसान आंदोलन, और विश्वविद्यालयों में छात्रों के आंदोलनों ने यह दिखाया है कि आज भी जब लोग सड़कों पर उतरते हैं, तो सत्ता पहले संवाद नहीं करती, बल्कि बल प्रयोग करती है।

 

सवाल पूछना अपराध नहीं है

 

जलियांवाला बाग की घटना हमें यह सिखाती है कि सत्ता को चुनौती देना जनता का अधिकार है। और यह अधिकार लोकतंत्र का आधार है। रवींद्रनाथ टैगोर ने इस हत्याकांड के बाद ब्रिटिश सरकार से ‘नाइटहुड’ की उपाधि लौटा दी थी। महात्मा गांधी ने इसे असहयोग आंदोलन की प्रेरणा माना। भगत सिंह ने इसे अपनी क्रांतिकारी चेतना का प्रारंभिक क्षण बताया। आज अगर कोई नागरिक सरकार से सवाल पूछता है, तो वह “राष्ट्रद्रोही” क्यों ठहराया जाता है? क्या राष्ट्र वही है जो सत्ता कहे? या राष्ट्र वह है जो नागरिक मिलकर बनाते हैं?

 

 

क्या हम इतिहास को दोहरा रहे हैं?

 

भारत आज विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, लेकिन यह केवल वोट देने से नहीं बनता। यह बनता है पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और नागरिक स्वतंत्रताओं से।

जब सरकारें सवालों से डरने लगती हैं, मीडिया पक्षपाती हो जाता है, और अदालतें मौन हो जाती हैं — तब लोकतंत्र का दम घुटने लगता है।

जलियांवाला बाग में जो हुआ, वह इसी मौन और अन्याय का नतीजा था। आज भी, जब कोई पत्रकार सच उजागर करता है और उसे जेल में डाला जाता है, तो वह भी एक तरह का “नरसंहार” ही है — सत्य का।

 

हमें क्या करना होगा?

 

बच्चों को जलियांवाला बाग की कहानी केवल एक अध्याय के रूप में नहीं, बल्कि एक चेतावनी के रूप में पढ़ाई जाए। उन्हें सिखाया जाए कि सवाल पूछना देशभक्ति है, गुनाह नहीं।

हमें असहमति को स्वीकार करना सीखना होगा। अगर कोई नागरिक सरकार की आलोचना करता है, तो उसे देशद्रोही कहना लोकतंत्र की बेइज्जती है। हर सत्ता को यह समझना होगा कि उसका अस्तित्व जनता से है। यदि वह जनता की आवाज को ही दबा दे, तो उसका नैतिक आधार खत्म हो जाता है। जलियांवाला बाग जैसे स्थानों को टूरिस्ट अट्रैक्शन नहीं, राष्ट्रीय चेतना के केंद्र के रूप में संरक्षित किया जाना चाहिए।

 

शहीदों की चीखें आज भी गूंज रही हैं

 

जलियांवाला बाग केवल इतिहास का एक काला अध्याय नहीं, बल्कि आज की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों में प्रासंगिक चेतावनी है। जब तक सत्ता के सामने सवाल उठाने की स्वतंत्रता नहीं होगी, तब तक लोकतंत्र अधूरा रहेगा।

यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम शहीदों की कुर्बानी को केवल दो मिनट के मौन या फूल चढ़ाने तक सीमित न करें। हमें उनका सपना पूरा करना होगा — एक ऐसा भारत जहां सत्ता जवाबदेह हो, नागरिक स्वतंत्र हों, और सवाल पूछना एक अधिकार हो, अपराध नहीं।

 

जलियांवाला बाग की दीवारें आज भी बोल रही हैं। सवाल यह है कि क्या हम सुन रहे हैं?

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