कहां थमेगी तेजी से बढ़ती हिंसा और अपराध की प्रवृत्ति। 

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नूर संतोखपुरी।

 

कहां थमेगी तेजी से बढ़ती हिंसा और अपराध की प्रवृत्ति।


आज हमारे देश में ही नहीं, अपितु लगभग प्रत्येक छोटे-बड़े देशों में भिन्न-भिन्न कारणों से हिंसा और अपराधों से संबधित घटनाओं में वृद्धि हुई है। शायद ही धरती का कोई टुकड़ा ऐसा हो जो हिंसा, आतंक और भय से मुक्त हो। हम यहां अपने देश में तेजी से फैल व बढ़ रही है हिंसक तथा आपराधिक प्रवृत्तियों पर विचार करेंगे। ऐसी प्रवृत्ति को प्राय: मनुष्य के अंदर फैली बेचैनी और अशांति से जोड़कर देखा जाता है। उच्च-शिक्षा प्राप्त व्यक्ति, अल्प शिक्षित, अशिक्षित, धार्मिक, नास्तिक आदि कोई व्यक्ति भी आज ऐसा दिखाई नहीं देता, जो शांत, प्रसन्नचित्त तथा सरलचित्त हो। और तो और, युवा वर्ग के अतिरिक्त किशोर वर्ग के बच्चे भी आजकल मानसिक बोझ व परेशानियों के नीचे दबे दिखाई देते हैं। वे अनचाही, अनावश्यक घुटन व भय से घिरे कई कुण्ठाओं व मानसिक विकारों से ग्रस्त हो रहे हैं। यह सच है, आज जैसा सामाजिक वातावरण व ताना-बाना बना दिया गया है, उसमें बच्चों का स्वाभाविक, प्राकृतिक, मानसिक तथा शारीरिक विकास प्रभावित हो रहा है। भय, आतंक, और हिंसा से भरे वातावरण में पल-बढ़ रहे बच्चों से यह उम्मीद करना कि वे बड़े होकर सरल-हृदय व अहिंसक होंगे, बिल्कुल बेमानी है।

आज समाज में बढ़ रही हिंसा व अपराध की समस्या के बारे में यदि हम गहराई से विचार करें, तो हम पाते हैं कि संगीन, गंभीर तथा अति घिनौनी हिंसक व अपराधिक कार्रवाइयों में अल्प-शिक्षित व बीमार मानसिकता वाले व्यक्ति ज्यादा शामिल पाये जाते हैं। हिंसा और अपराध के मुख्यतया दो रूप होते हैं, एक स्थूल रूप और दूसरा सूक्ष्म रूप। सू्क्ष्म किस्म की अपराधिक कार्रवाइयों में शिक्षित व उच्चशिक्षित व्यक्ति भी शामिल होते हैं। इस तरह की घटनाएं ज्यादातर विकसित देशों में देखने-सुनने को पहले मिलती थी अब तो ऐसी घटनाएं भारत में भी आम होने लगी है। ऐसी घटनाओं में जानी नुकसान, माली नुकसान की अपेक्षा कम होता है या कभी होता ही नहीं। हमारे समाज और देश को जिसने बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, आतंकित व भयभीत कर रखा है, वो स्थूल किस्म की हिंसा और आतंक है। प्राय: स्थूल किस्म की हिंसा दिशाहीन होती है, किंतु उद्देश्यहीन नहीं होती। भारत में जो छोटी-बड़ी हिंसक घटनायें घटित होती हैं, या हो रही है, उनके पीछे जो मुख्य कारण हैं, वे हैं- व्यक्तिगत रंजिश, वर्ग-जाति आधारित रंजिश, सांप्रदायिक वैमनस्य धार्मिक-उन्माद, आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति आदि। वैसे तो हिंसक व अपराधिक तरीके से हुई आर्थिक क्षति को सहन करना या भुला देना कठिन होता है, लेकिन जिस परिवार का आधार स्तंभ, कमाई करने वाला सुरक्षा देने वाला व्यक्ति अप्राकृतिक ढंग से असमय कत्ल कर दिया जाय, तो उस परिवार के शेष लोगों की क्या दशा होती है, यह कल्पना से परे की बात नहीं है। सरकारी अधिकारियों, पुलिस, नेताओं व कानून की ओर से सामान्य जन को कितनी मदद मिल पाती है, सुरक्षा मिल पाती है, यह तथ्य भी किसी से छिपा हुआ नहीं है। आम देशवासी को अब अपने देश में न्याय मिल पाना संभव नहीं रह गया है। यूं लगता है, पूरा राजनीतिक तंत्र, तथाकथित लोकतंत्र, प्रशासनिक व्यवस्था, पुलिस और कानून केवल ऊंचे लोगों को, नेताओं-मंत्रियों, उच्च-अधिकारियों, धनवानों को लाभ पहुंचाने, सुरक्षा देने के लिए रह गए हैं। इससे जनता में अच्छे संकेत व संदेश नहीं जाते। एक बात और, भले ही अब घपलों-घोटालों से सीधे-सीधे कोई व्यक्ति-विशेष प्रभावित न होता हो, किंतु पूरे राज्य और देश की आर्थिक दशा तो प्रभावित होती है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि भी खराब होती है। ऐसे भ्रष्ट कुकृत्यों को भी संगीन गंभीर अपराधिक कार्रवाइयों की कोटि में रखा जाना चाहिए।

इतिहास साक्षी है कि हमारे देश में धर्म के नाम पर जितनी मानव क्षति हुई है, आर्थिक उन्नति पर विराम लगा है, इतना किसी अन्य कारण से नहीं हुआ है। विडम्बना यह है, कि भारत अभी भी सांप्रदायिकता और धार्मिक उन्माद से मुक्त नहीं हो पाया है। क्या विज्ञान और दकियानूसी धर्म के ढकोसले साथ-साथ चलते रहेंगे? क्या ऐसे में देश को पूर्ण उन्नति की ओर ले जाया जा सकेगा?

धर्म की परिभाषा और स्वरूप वही नहीं है, जिसका वर्णन व गुणगान धार्मिक ग्रन्थों-पोथियों में किया गया है। श्लोक पढऩा, मन्त्रोच्चारण करना, पूजा-पाठ में रत रहना ही धार्मिक होने की कोई योग्यता नहीं है। धर्म, संस्कृति और अच्छे संस्कार सिखाते हैं सहिष्णु होना, दयावान, परोपकारी होना, सबके प्रति प्रेमभाव रखना, भ्रातृत्वभाव को बढ़ावा देना। परंतु आज के मनुष्य का मन विद्वेष, घृणा, क्रोध, ईर्ष्या, संकीर्णता से भरा रहता है। सहनशीलता, दया, क्षमा करने की भावना बहुत कम दिखाई देती है। फलस्वरूप समाज में अपराधों और हिंसा में वृद्धि हुई है जरा-जरा सी बात पर, छोटे-छोटे मतभेदों पर कई लोग मरने-मारने पर आमदा हो जाते हैं। बहुत आश्चर्य होता है, जब हम पढ़ते या सुनते हैं, कि किसी छोटी सी बात पर एक या एक से अधिक हत्याएं फलां जगह पर हो गई। आज का मानव इतना कठोरचित्त और हिंसक हो चुका है कि वह अपने प्रति भी सहनशील, संवेदनशील, सहृदय नहीं रहा। छोटी-छोटी बातों के लिये अपने प्राणों का दुश्मन बन बैठता है, और अपनी हत्या स्वयं कर लेता है। ऐसे में उससे अहिंसक व संवेदनशील होने की आशा करना बेकार है।

वर्तमान समय में हमारे देश में डकैती, लूट, चोरी, अपहरण कर फिरौती मांगना, न मिलने पर हत्या कर देने की जो घटनायें हो रही हैं, उनके पीछे मुख्य कारण हैं बढ़ती हुई जनसंख्या, बेरोजगारी, अपर्याप्त सुरक्षा उपाय, पुलिस तथा राजनीतिज्ञों द्वारा अपराधियों और हत्यारों को संरक्षण देना, न्याय प्रणाली की त्रुटियां और आग पर घी डालने का काम यहां फैल रही पश्चिमी सभ्यता का नासूर कर रहा है। पश्चिमी सभ्यता का उद्देश्य ही यही है, खूब खाओ-पीओ, पहनो, मौज-मस्ती मनाओ, ऐश करो, एय्याशी करो। इन सब साधनों के लिये धन की आवश्यकता होती है। जब साधन जुट नहीं पाते, धन पास नहीं, तो अपराधी मनोवृत्ति वाले लोग धन प्राप्त करने हेतु चोरी-डकैती, हत्यायें करते हैं। अपहरण का सहारा लेकर फिरौती मांगते हैं, न मिले तो कत्ल करते हैं। ऐसे कामों के गुर वे पेशेवर अपराधियों से सीख लेते हैं, या पश्चिमी चकाचौंध से भरपूर हमारी मसाला हिंदी फिल्मों से सीख लेते हैं। अब तो हमारे यहां सुपारी लेकर किसी की हत्या कर देना आम बात हो गई है।

अप्रत्यक्ष तरीके से टीवी-संस्कृति भी समाज में हिंसा तथा बेचैनी फैलाने में भूमिका निभा रही है। आज का मनुष्य भोगी, भौतिकवादी, अति महत्वाकांक्षी तो है ही, टी वी पर दिखाये जाने वाले आकर्षक, लुभावने विज्ञापन, कार्यक्रम उसे और अधिक भौतिकवादी, भोगवादी बनाये जा रहे हैं। टी वी संस्कृति के ये लुभावने विज्ञापन व कार्यक्रम आदमी से इच्छा और आवश्यकता में अंतर करने का विवेक छीन रहे हैं, कर्मण्यता, कर्त्तव्यनिष्ठा को नष्ट कर रहे हैं। एक के बाद एक इच्छाएं बढ़ती ही जाती हैं, और जब सही एवं उचित तरीके से उनकी पूर्ति असंभव प्रतीत होती है, तो आदमी गलत व अनुचित, हिंसक तरीके अपनाता है। टीवी, फिल्मों, यू ट्यूब , वेब सीरीज द्वारा परोसी जा रही अश्लीलता, भौंडी पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति के कारण हमारे देश में अब बलात्कार की घटनाओं में भी वृद्धि हुई है। टी वी धारावाहिकों,वेब सीरीज तथा कई नई फिल्मों द्वारा अनैतिक संबंधों को सामाजिक मान्यता दिलाये जाने की भरपूर कोशिशें की जा रही है। इससे हमारे शुद्ध भारतीय समाज का ताना-बाना उलझ रहा है। आपसी रिश्तों और संबंधों को लेकर नई-नई समस्याएं व उलझनें पैदा हो रही हैं। इनको सुलझाने के प्रयास कई बार हिंसक व अपराधिक परिस्थितियां उत्पन्न कर देते हैं फलस्वरूप हिंसा व अपराधों में वृद्धि हो रही है। महिलाओं के उत्पीडन तथा हत्याओं के मामलों में वृद्धि हुई है,तो वहीं दूसरी ओर इसके उलट महिलाओं द्वारा पुरुषों के उत्पीड़न की घटनाएं भी बढ़ी हैं। इससे सिद्ध होता है कि हमारे समाज में धन-लोलुपता व लालच की प्रवृत्ति काफी बढ़ चुकी है।

गत कुछ वर्षों से हमारे देश में हिंसक और अपराधिक घटनाओं में काफी वृद्धि हुई हैं। क्या अमीर, क्या गरीब, क्या शहरवासी, क्या गांववासी प्रत्येक व्यक्ति आजकल भयभीत, आतंकित दिखाई देता है। गरीब आदमी से उसकी गरीबी व दु:खों को बांटने के लिए कोई तैयार नहीं है। दूसरी ओर अमीरों को अपनी दौलत व संपत्ति छिन-लुट जाने का भय सताता रहता है। वे अपनी तथा अपने परिवारजनों की सुरक्षा को लेकर चिंतित रहते हैं। भले ही उन्होंने भ्रष्ट व अनुचित तरीकों से दौलत इकट्ठी की हो, पर वे कभी भी अपनी दौलत व संपत्ति को साधनहीन तथा सुविधाहीन व्यक्तियों से बांटने को तैयार नहीं होते। यहां तक कि जो नौकर व कर्मचारी उनके लिए धन व संपत्ति अर्जित करने का काम करते हैं, वे उनका भी खूब शोषण करते हैं, यह भी एक तरह का गंभीर अपराध ही है, फलस्वरूप शोषण सहने वालों के मन में गुस्से और विद्रोह की भावना बढ़ती जाती है। जो रूप बदलकर विभिन्न हिंसक गतिविधियों में बदल जाती है। गरीब आदमी को कदम-कदम पर अपमानित, जलील होने तथा न्याय न मिलने का भय सताता रहता है। अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होने के बावजूद उसे उसके अधिकारों से वंचित रखा जाता है। इससे उग्र स्वभाव के, दबकर न रहने वाले लोग फिर हिंसक तथा आपराधिक गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं। इससे भी समाज व देश में अशांति और आतंक की स्थिति बन जाती है।

अपराधियों और हत्यारों को कठोरतम दंड, जनता के सामने दंड दिये जाने की चर्चा भी की जाती है, मृत्युदंड के पक्ष में बहुत से तर्क दिये जाते हैं। एक प्रश्न यह भी है, कि क्या मृत्युदंड से हिंसक व अपराधिक गतिविधियों पर अंकुश लगाया जा सकता है? दूसरा प्रश्न, क्या वर्तमान समय में एक सभ्य व आधुनिक समाज में यह शोभा देता है, कि एक हत्या के बदले दूसरी हत्या की जाये? तीसरा प्रश्न, क्या इससे मनुष्य के स्वभाव को बदला जा सकता है? चौथा प्रश्न, क्या मृत्युदंड से हिंसा और अपराधों पर पूर्णतया काबू पाया जा सकता है? इन सबका उत्तर है, नहीं, कदापि नहीं। अब हम चैतन्य से अनंत विस्तार में विचरण कर रहे हैं। अभी हमें चेतना के चरम बिंदु पर पहुंचना है। मानव से महामानव बनने तक की यात्रा संपूर्ण करनी है। मनुष्य को अभी और अधिक सभ्य, सामाजिक प्राणी, सुसंस्कृत बनाये जाने की आवश्यकता है। इस दिशा में निरंतर प्रयास होते रहने चाहिये।

हमारा भारतीय समाज अन्य समस्याओं के अलावा हिंसा व अपराध की समस्या से बुरी तरह ग्रस्त है। सन् सैंतालीस की आजादी से लेकर आज तक केन्द्र में एक भी ऐसा राजनैतिक दल नहीं हुआ, जिसने सत्ता संभालने के बाद देश की समस्याओं को सुलझाने के गंभीर प्रयास किये हों। केवल नारों व आकर्षक घोषणा पत्रों से समस्याएं सुलझ नहीं सकती। किसी भी नेता में दृढ़ राजनीतिक इच्छा-शक्ति दिखाई नहीं देती। हमारे देश में हिंसा और अपराधों में हुई वृद्धि को तभी रोका जा सकता है, यदि राजनैतिक क्षेत्र में अपराधियों तथा ऐसी मनोवृत्ति वाले लोगों के प्रवेश पर रोक लगाई जाये। राजनीतिज्ञों और अपराधियों के बीच पनप रहे गठजोड़ को खत्म किया जाय। न्याय-प्रणाली की तमाम त्रुुटियों को दूर किया जाय। भ्रष्ट राजनेताओं और भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों को उचित दंड दिया जाय और भ्रष्ट तरीके से बनाई गई उनकी संपत्ति-पूंजी को जब्त किया जाए।

शिक्षा-प्रणाली की ओर विशेष ध्यान दिया जाय, केवल साक्षर बनाने से कम नहीं चलेगा। सुशिक्षित करने का अभियान चलाया जाय। जन-जन तक शिक्षा का समुचित लाभ पहुंचाना जरूरी है।

 

अशिक्षित तथा अल्पशिक्षित समाज में हिंसा व अपराधों को बढऩे से नहीं रोका जा सकता। त्रासदिक विडंबना यह है कि प्रत्येक भांति की शिक्षा अब काफी महंगी होती जा रही है। शिक्षा की मूल भावना व महत्व से खिलवाड़ किया जा रहा है। शिक्षा-प्राप्ति के मौलिक अधिकार से आम नागरिकों को वंचित किया जा रहा है, यह ठीक नहीं है। समाज में से अशांति व असंतोष दूर करने के लिए बेकारी, गरीबी, भूख को मिटाने के सार्थक व गंभीर प्रयास करने होंगे। लोग अपनी सुरक्षा के उपाय कहां तक कर सकते हैं? अब तो पग-पग पर उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। लोगों की जान और माल की सुरक्षा के प्रति पुलिस व प्रशासन को जवाबदेह बनाया जाय। भ्रष्टाचार पर नकेल डाली जाय। आम लोगों के साथ हो रहे जुल्म व शोषण को समाप्त किया जाय। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है, कि जब तक हमारे देश का राजनीतिक तंत्र, प्रशासनिक ढांचा, पुलिस की कार्य-प्रणाली, न्यायपालिका की उपयोगिता को सही व दुरूस्त नहीं किया जाता, तब तक भारत हिंसा व अपराध से मुक्त नहीं हो सकता।    (विभूति फीचर्स)

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