गंगोलीहाट जहां विश्राम करती है काली माता।                 

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रमाकान्त पन्त, उत्तराखण्ड।

 

गंगोलीहाट जहां विश्राम करती है काली माता।                                                           

उत्तराखंड के जनपद पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट की सौन्दर्य से परिपूर्ण छटाओं के बीच अत्यन्त ही प्राचीन मां भगवती महाकाली का अद्भुत मंदिर है, जो धार्मिक और पौराणिक दोनों ही दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। गंगोलीहाट का यह स्थान आगन्तुकों का मन मोहने में पूर्णतया सक्षम है। स्कंदपुराण के मानस खंड में यहां स्थित देवी का विस्तार से वर्णन मिलता है।

 

कई रहस्यमयी गाथाओं का साक्षी है यह मन्दिर।

उत्तराखण्ड के लोगों की आस्था का केन्द्र महाकाली मंदिर अनेक रहस्यमयी कथाओं को अपने आप में समेटे हुए है। कहा जाता है कि जो भी भक्तजन श्रद्धापूर्वक महाकाली के चरणों में आराधना के श्रद्धापुष्प अर्पित करता है उसके रोग, शोक, दरिद्रता व महान विपदाओं का हरण हो जाता है व उसे अतुल ऐश्वर्य और सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। भक्तों के अनुसार यहां श्रद्धा एवं विनयता से की गई पूजा का विशेष महत्व है। इसलिये वर्ष भर यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं का आवागमन लगा रहता है। यहां पधारने वाले भक्तजन बड़े ही भक्ति भाव से बताते हैं कि किस प्रकार माता महाकालिका ने उनकी मनौती पूर्ण की।

यहां पहुंचकर धन्य हुए शंकराचार्य-

महाकालिका की अलौकिक महिमा के पास आकर ही जगतगुरू शंकराचार्य ने स्वयं को धन्य माना और मां के प्रति अपनी आस्था के श्रद्धापुष्प अर्पित करते हुए कहा कि शक्ति ही शिव है।

लोगों की आस्था का प्रतीक-

उत्तराखण्ड के प्रसिद्व कवि पं. लोकरत्न गुमानी बताते हैं कि यहां माता विशेष परिस्थितियों में गंभीर व भयानक रूप धारण करती हैं। श्री महाकाली का यह मंदिर उत्तराखण्ड के लोगों की आस्था का प्रतीक है। सुबह शाम जब माँ की आरती की जाती है तो वातावरण अद्भुत भक्तिमय हो जाता है। प्रातः काल से ही यहां भक्तजनो का तांता लगना शुरू हो जाता है। सुंदरता से भरपूर इस मंदिर के एक ओर हरा भरा देवदार का आच्छादित घना जंगल है जो बड़ा ही मनभावन है। विशेष रूप से नवरात्री एवं चैत्र मास की अष्टमी को महाकाली भक्तों की यहां पर भीड़ उमड़ती है।

कभी आवाज सुनने पर हो जाती थी मौत

आदि शक्ति महाकाली का यह मंदिर ऐतिहासिक, पौराणिक मान्यताओं सहित अद्भुत चमत्कारिक किवदंतियों व गाथाओं को अपने आप में समेटे हुए है। कहा जाता है कि महिषासुर व चण्डमुण्ड सहित तमाम भयंकर शुम्भ निशुम्भ आदि राक्षसों का वध करने के बाद भी महाकाली का रौद्र रूप शांत नहीं हुआ और इस रूप ने महाविकराल धधकती महाभयानक ज्वाला का रूप धारण कर तांडव मचा दिया था। कहते है कि महाकाली ने महाकाल का भयंकर रूप धारण कर देवदार के वृक्ष पर चढ़कर जागनाथ व भुवनेश्वर नाथ को आवाज लगानी शुरू कर दी। यह आवाज जिस किसी के कान में पड़ती थी वह व्यक्ति सुबह तक यमलोक पहुंच चुका होता था।

बाद में जगतगुरू आदि शंकराचार्य जब अपने भारत भ्रमण के दौरान जागेश्वर आये तो शिव प्रेरणा से उनके मन में यहां आने की इच्छा जागृत हुई, लेकिन जब वे यहां पहुंचे तो नरबलि की बात सुनकर उद्वेलित शंकराचार्य ने इस दैवीय स्थल की सत्ता को स्वीकार करने से इंकार कर दिया और शक्ति के दर्शन करने से भी वे विमुख हो गए। मान्यता के अनुसार जब विश्राम के उपरान्त शंकराचार्य ने देवी जगदम्बा की माया से मोहित होकर मंदिर के शक्ति परिसर में जाने की इच्छा प्रकट की । लेकिन वे शक्ति परिसर से कुछ पहले प्राकृतिक रूप से निर्मित गणेश मूर्ति से आगे नहीं बढ़ पाये और अचेत होकर एक स्थान पर गिर पड़े व कई दिनों तक वे वहीं पड़े रहे । उनकी आवाज भी अब बंद हो चुकी थी। अपने अहंभाव व कटु वचन के लिए जगतगुरू शंकराचार्य को अब अत्यधिक पश्चाताप हो रहा था। पश्चाताप प्रकट करने व अन्तर्मन से माता से क्षमा याचना के पश्चात मां भगवती की अलौकिक आभा का उन्हें आभास हुआ।

पूजन की परम्परा को नया स्वरुप दे गये शंकराचार्य-

चेतन अवस्था में लौटने पर उन्होंने महाकाली से वरदान स्वरूप प्राप्त मंत्र शक्ति व योगसाधना के बल पर शक्ति के दर्शन किए और महाकाली के रौद्रमय रूप को शांत किया तथा मंत्रोच्चार के द्वारा लोहे के सात बड़े-बड़े भदेलों से शक्ति को कीलन कर प्रतिष्ठापित किया। अष्टदल व कमल से मढवायी गयी इस शक्ति की ही पूजा अर्चना वर्तमान समय में यहां पर होती है। पौराणिक काल में प्रचलित नरबलि के स्थान पर नारियल चढ़ाने की प्रथा अब यहां प्रचलित है।

चमत्कारों का साक्षी-

चमत्कारों से भरे इस महामाया भगवती के दरबार में सहस्त्रचण्डी यज्ञ, सहस्रघट पूजा, शतचंडी महायज्ञ, का पूजन समय-समय पर आयोजित होता है। यही एक ऐसा दरबार है जहां अमावस्या हो चाहे पूर्णिमा सब दिन हवन यज्ञ आयोजित होते हैं। मंदिर में चैत्र और अश्विन मास की महाष्टमी को पिपलेत गांव के पंत उपजाति के ब्राह्मणों द्वारा अर्धरात्रि में भोग लगाया जाता है। इस कालिका मंदिर के पुजारी स्थानीय गांव निवासी रावल उपजाति के लोग हैं।

सरयू एवं रामगंगा के मध्य गंगावली की सुनहरी घाटी में स्थित भगवती के इस आराध्य स्थल की बनावट त्रिभुजाकार बतायी जाती है और यही त्रिभुज तंत्र शास्त्र के अनुसार माता का साक्षात् यंत्र है। यहां धनहीन धन की इच्छा से, पुत्रहीन पुत्र की इच्छा से, सम्पत्तिहीन सम्पत्ति की इच्छा से और सांसारिक मायाजाल से विरक्त लोग मुक्ति की इच्छा से आते हैं व अपनी मनोकामना पूर्ण पाते हैं।

मंदिर के निर्माण की चमत्कारिक कथा- 

महामाया की प्रेरणा से नागा पंथ के महात्मा जंगम बाबा जिन्हें स्वप्न में कई बार इस शक्ति पीठ के दर्शन होते थे। उन्होंने रूद्र दन्त पंत के साथ यहां आकर भगवती के लिए मंदिर निर्माण का कार्य शुरू किया। परन्तु उनके आगे मंदिर निर्माण के लिये पत्थरों की समस्या आन पड़ी। इसी चिंता में एक रात्रि वे अपने शिष्यों के साथ धूनी के पास बैठकर विचार कर रहे थे। कोई रास्ता नजर न आने पर थके व निढाल बाबा सोचते-सोचते शिष्यों सहित गहरी निद्रा में सो गये तथा स्वप्न में उन्हें महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती रूपी तीन कन्याओं के दर्शन हुए। वे अपनी दिव्य मुस्कान के साथ बाबा को स्वप्न में ही अपने साथ उस स्थान पर ले गयी जहां पत्थरों का खजाना था। यह स्थान महाकाली मंदिर के निकट देवदार वृक्षों के बीच घने वन में था। इस स्वप्न को देखते ही बाबा की नींद भंग हुई उन्होंने सभी शिष्यों को जगाया। स्वप्न का वर्णन कर रातों-रात चीड की लकड़ी की मशालें तैयार की तथा पूरा शिष्य समुदाय उस स्थान की ओर चल पड़ा, जिसे बाबा ने स्वप्न में देखा था। वहां पहुंचकर रात्रि में ही खुदाई का कार्य आरम्भ किया गया थोड़ी ही खुदाई के बाद यहां संगमरमर से भी बेहतर पत्थरों की खान निकल आयी। कहते हैं कि पूरा मंदिर, भोग भवन, शिवमंदिर, धर्मशाला,मंदिर परिसर व प्रवेश द्वारों के निर्माण होने के बाद पत्थर की खान स्वत: ही समाप्त हो गयी। आश्चर्य की बात तो यह है इस खान में नौ फिट से भी लम्बे तराशे हुए पत्थर मिले।

महाकाली के संदर्भ में एक प्रसिद्व किवदन्ती है कि कालिका का जब रात में डोला चलता है तो इस डोले के साथ कालिका के गण आंण व बांण की सेना भी चलती हैं। कहते है यदि कोई व्यक्ति इस डोले को छू ले तो दिव्य वरदान का भागी बनता है।

रोज विश्राम करने आती है कालिका-

महाआरती के बाद शक्ति के पास महाकाली का बिस्तर लगाया जाता है और सुबह बिस्तर यह दर्शाता है कि मानों यहां साक्षात् कालिका विश्राम करके गयी हों क्योंकि बिस्तर में सलवटें पड़ी रहती हैं। मां काली के तमाम किस्से आज भी क्षेत्र में सुने जाते हैं। भगवती महाकाली का यह दरबार असंख्य चमत्कारों व किवदन्तियों से भरा पड़ा है।

सेना की है गहरी आस्था- 

गंगोलीहाट में स्थित ‘माँ कालिका मंदिर’ जिसे पूरे कुमाऊँ क्षेत्र सहित भारतीय फौज की एक शाखा कुमाऊं रेजीमेंट की आस्था और विश्वास का केंद्र भी कहा जाता है, विश्वभर में प्रसिद्ध है। हाट कालिका माता के इस पावन मंदिर को भगवती माता मंदिर, हाट दरबार, महाकाली शक्तिपीठ आदि नामों से भी जाना जाता है।

कुमाऊं रेजीमेंट का हाट कालिका से जुड़ाव द्वितीय विश्वयुद्ध (1939 से 1945) के दौरान हुआ। बताया जाता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बंगाल की खाड़ी में भारतीय सेना का जहाज डूबने लगा। तब सैन्य अधिकारियों ने जहाज में सवार सैनिकों से अपने-अपने ईष्ट की आराधना करने को कहा। कुमाऊं के सैनिकों ने जैसे ही हाट काली का जयकारा लगाया तो जहाज किनारे लग गया। इस वाकये के बाद कुमाऊं रेजीमेंट ने मां काली को अपनी आराध्य देवी की मान्यता दे दी। जब भी कुमाऊं रेजीमेंट के जवान युद्ध के लिए रवाना होते हैं तो कालिका माता की जै के नारों के साथ आगे बढ़ते हैं। सेना की विजयगाथा में हाट कालिका के नाम से विख्यात गंगोलीहाट के महाकाली मंदिर का भी गहरा नाता रहा है। 1971 की लड़ाई समाप्त होने के बाद कुमाऊं रेजीमेंट ने हाट कालिका के मंदिर में महाकाली की मूर्ति चढ़ाई थी। यह मंदिर में स्थापित पहली मूर्ति थी। हाट कालिका के मंदिर में शक्ति पूजा का विधान है। सेना द्वारा स्थापित यह मूर्ति मंदिर की पहली मूर्ति थी। इसके बाद 1994 में कुमाऊं रेजीमेंट ने ही मंदिर में महाकाली की बड़ी मूर्ति चढ़ाई। इन मूर्तियों को आज भी शक्तिस्थल के पास देखा जा सकता है। हाट कालिका की पूजा के लिए साल भर सैन्य अफसरों और जवानों का तांता लगा रहता है।  (विभूति फीचर्स)

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