राष्ट्रीयता एवं स्वाभिमान के प्रतीक थे छत्रपति शिवाजी।

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अंजनी सक्सेना।

 

 

           छत्रपति शिवाजी जयंती : 19 फरवरी

 

राष्ट्रीयता एवं स्वाभिमान के प्रतीक थे छत्रपति शिवाजी।

 

 

इतिहासकारों, विशेषकर अंग्रेज इतिहासकारों ने भारत के जिन महापुरुषों के साथ अन्याय किया है, उनमें छत्रपति शिवाजी भी हैं। उनके जिन गुणों एवं विशेषताओं को आदर एवं सम्मान के साथ वर्णन किया जाना चाहिए था, उनकी लगभग उपेक्षा ही की गई है। विश्व के इस श्रेष्ठ इतिहास पुरुष को मात्र हिन्दवी स्वराज या हिन्दू पद पादशाही के नेता के रूप में चित्रित किया गया है तथा सर्व धर्म समभाव तथा सभी जातियों के प्रति सम्मान, सद्भाव एवं आदर के उनके गुण एवं विशेषताओं को ज्यादा महत्व नहीं दिया गया है। राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय स्वाभिमान के उनके अभूतपूर्व संघर्ष को हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष निरूपित किया गया। यहां तक कि कुछ अंग्रेज इतिहासकारों तथा मुगलिया इतिहास लेखकों ने उन्हें एक लुटेरा-शासक निरूपित करने की हीन हरकत तक की है।

वस्तुत: शिवाजी का संपूर्ण जीवन ही भारत में राष्ट्रीयता एवं स्वाभिमान को विकसित करने के लिए समर्पित रहा। उन्होंने हिन्दू संस्कृति की रक्षा करने का प्रयास किया,पर इसके साथ ही उन्होंने दूसरे धर्मों को भी सम्मान दिया। यही कारण था कि शिवाजी ने यह नियम बना दिया था कि उनके सैनिक, धार्मिक एवं पवित्र स्थानों, मस्जिदों, स्त्रियों और कुरान शरीफ को किसी भी प्रकार की हानि नहीं पहुंचायेंगें और न इनका अपमान करेंगे। कुरान की कोई प्रति जब उन्हें मिल जाती थी तो वे उसका पूरी तरह आदर एवं सम्मान करते थे। किसी हिन्दू या मुस्लिम स्त्री को जब बंदी बना लिया जाता था तो शिवाजी उस समय तक उसकी देखरेख करते थे, जब तक कि वह स्त्री उसके परिजनों को सौंप नहीं दी जाती थी। कई मुस्लिम स्त्रियों को उन्होंने मां के संबोधन से संबोधित किया था। उन्होंने मकबरों तथा धार्मिक स्थानों को अनुदान देने की प्रथा को पुन: लागू किया था। यही कारण था कि उनकी सेना में कई मुस्लिम अधिकारी थे, जिसमें मुंशी हैदर, सिद्दी सम्बल,सिद्दी मिसरा दरिया, सांरग, दौलत खां, सिद्दी हलाल और नूर खां के नाम उल्लेखनीय हैं। ये सभी शिवाजी के प्रति पूर्ण निष्ठा एवं आस्था रखते थे। शिवाजी ने पहली बार भारत में सुव्यवस्थित जलसेना की स्थापना की थी। इस जलसेना का सेनापति भी एक मुस्लिम दौलत खां था।

 

सर्वधर्म समभाव के साथ-साथ शिवाजी ने हिन्दू धर्म में व्याप्त जाति प्रथा के आधार पर भेदभाव की भावना को समाप्त करने का भी प्रयास किया था। उनकी धारणा थी कि व्यक्ति का सम्मान जाति के आधार पर नहीं होना चाहिए। इसलिए जहां उन्होंने ब्राह्राण विद्वानों को सम्मान एवं आदर दिया, वहीं उन्होंने मल्लाह, कोली, बाघर, संधर, एवं अन्य उपेक्षित जातियों को संगठित करके उन्हें भी अपनी सेना में स्थान दिया।

 

अंग्रेज इतिहासकारों ने शिवाजी के जिस संघर्ष को हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष का नाम दिया, वस्तुत: वह धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध सर्वधर्म समभाव का संघर्ष था। औरंगजेब ने दिल्ली में सत्ता सम्हालते ही जो आदेश जारी किए थे, उनसे हिन्दू ही नहीं अपितु मुसलमानों का स्वाभिमान एवं धार्मिक भावनाएं आहत हो रही थीं। उसने राज दरबार में उपस्थित होने वाले हिन्दुओं द्वारा मस्तक पर तिलक लगाना रोक दिया था, होली के उत्सव एवं जुलूस बंद कर दिए थे, नये मंदिरों के निर्माण पर पाबंदी लगा दी थी, सैकड़ों पुराने मंदिरों को तोड़ दिया गया था।

 

यही नहीं ताजियों के जुलूसों पर रोक लगा दी गई थी, कई सूफियों, दरवेशों और फकीरों को उसने कड़ी सजाएं दी थीं, संगीत तक पर रोक लगा दी गई थी।औरंगजेब की इस कट्टरता से सारा देश त्राहि-त्राहि कर रहा था। औरंगजेब की इसी कट्टरता के विरुद्ध शिवाजी ने जब संघर्ष का शंखनाद किया तो स्वाभिमानी और राष्ट्रीयता के प्रेमी भारतीय, शिवाजी के नेतृत्व में एकजुट हुए, इनमें हिन्दू और मुसलमान सभी थे। शिवाजी के औरंगजेब से संघर्ष को हिन्दू-मुसलमान संघर्ष निरूपित करने वाले इस तथ्य को भूल जाते हैं कि शिवाजी ने हिन्दू राजाओं से भी संघर्ष किया था। इनमें घोरपड़े, मोरे, निम्बालकर, सावंत, जाधव आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। महाराष्ट्र और कर्नाटक के जिन किलों पर उन्होंने अधिकार किया, उनमें से अधिकांश पर हिन्दू ही काबिज थे।

शिवाजी जहां आदर्शवादी थे वहीं वे व्यावहारिक भी थे। वे जानते थे कि कांटे को कांटे से ही निकाला जा सकता है। इसीलिए उन्होंने अपने कपटी और चालाक दुश्मनों से वैसा ही व्यवहार किया। इसके लिए वे कभी झुके, कभी पीछे हटे और कभी-कभी दुश्मनों से ऐसे समझौते भी किये, जिनसे उन्हें अपमान भी झेलना पड़ा। उनके शत्रु न सिर्फ कपटी और चालाक थे, बल्कि वे शक्तिशाली और साधन संपन्न भी थे, ऐसे शत्रुओं से लडऩे के लिए साधनों की व्यवस्था करने हेतु शिवाजी ने शत्रुओं को लूटकर भी धन जमा किया था।

शिवाजी ने औरंगजेब को उसी की नीतियों पर चलते हुए झुकने के लिए विवश किया। जब बीजापुर के सरदार अफजल खां ने शिवाजी को धोखे से मारने की कोशिश की तो शिवाजी ने उसे ही मार गिराया। इस विजय से शिवाजी का नाम घर-घर में लोकप्रिय हो गया और बीजापुर की सेना के अफगान सैनिक भी शिवाजी की सेना में शामिल हो गये। वहीं दूसरी ओर औरंगजेब के मामा शाइस्ता खां ने भी जब शिवाजी को धोखा देना चाहा तो शिवाजी ने उस पर सोते समय ही आक्रमण करके उसे मार दिया। शाइस्ता खां का बेटा भी इस हमले में मारा गया।

 

शिवाजी की आलोचना औरंगजेब से पुरन्दर की संधि को लेकर की जाती है, लेकिन कुछ समय के लिए औरंगजेब के सामने झुककर शिवाजी ने न केवल उसे भ्रम में रखा, बल्कि अपनी अबूझ सैन्य क्षमता का परिचय देते हुए अपने सारे साथियों को पुन: इकट्ठा कर लिया। औरंगजेब द्वारा अपमानित किए जाने पर शिवाजी ने भरी सभा में औरंगजेब को जवाब दिया, परिणामस्वरूप वे कैद तो कर लिये गये, लेकिन औरंगजेब के कड़े पहरे से शिवाजी अपने पुत्र संभाजी के साथ टोकरियों में बैठकर कैसे बाहर निकले, यह कहानी सभी जानते हैं। शिवाजी की रणनीति ने अंतत: औरंगजेब को झुकने पर विवश कर दिया और बाद में औरंगजेब ने शिवाजी को राजा की उपाधि से विभूषित किया।

शिवाजी के इस सर्वधर्म समभाव एवं सर्व जाति सद्भाव के लिए उनके बाल्यकाल के संस्कार तथा समर्थ गुरू स्वामी रामदास की शिक्षाएं महत्वपूर्ण रहीं। उनकी महान माता जीजाबाई ने जहां उन्हें बचपन में भारतीय महापुरुषों की जीवनियां एवं धार्मिक कथाएं सुनाकर उनको सुदृढ़ चरित्र का स्वामी बनाया वहीं समर्थ गुरु रामदास ने उन्हें सिया राम मय सब जग जानी का ज्ञान दिया। अपनी माता की शिक्षा एवं एक महान संत के ज्ञान ने ही उन्हें विश्व इतिहास का एक महान पुरुष बनाया। (विभूति फीचर्स)

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