व्यूरो: मुरादाबाद
साहित्यिक संस्था ‘हस्ताक्षर’ ने मातृ-दिवस की पूर्व संध्या पर आयोजित की काव्य-गोष्ठी
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मुरादाबाद, 11 मई। साहित्यिक संस्था ‘हस्ताक्षर’ की ओर से आज मातृ-दिवस की पूर्व संध्या पर एक काव्य-गोष्ठी का आयोजन स्वतंत्रता सेनानी भवन पर हुआ। कवयित्री आकृति सिन्हा द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता रामदत्त द्विवेदी ने की। मुख्य अतिथि धवल दीक्षित एवं विशिष्ट अतिथियों के रूप में डॉ. पूनम बंसल, श्रीकृष्ण शुक्ल एवं फक्कड़ ‘मुरादाबादी’ उपस्थित रहे। कार्यक्रम का संचालन राजीव प्रखर ने किया। रचना पाठ करते हुए कमल शर्मा ने कहा -बचपन में रोते बच्चे पर आंचल सी बन जाती माॅं। सीने से हरदम चिपकाए, कितने लाड़ लड़ाती माॅं। कवयित्री आकृति सिन्हा के भाव इस प्रकार थे – जिसने जीवन दिया मुझे जो दुनियां में लायी मुझे। जिसकी दुआ से मिला सबकुछ मुझे, उस मातृ शक्ति को प्रणाम मेरा दे आशीर्वाद मुझे। महानगर के रचनाकार राजीव प्रखर ने अपनी पंक्तियों से सभी को भाव विभोर करते हुए कहा – क्या तीरथ की कामना, कैसी धन की आस। जब बैठी हो प्रेम से, अम्मा मेरे पास।। चीं-चीं करके भोर में, चिड़िया रही पुकार। अम्मा से कुछ कम नहीं, यह सुन्दर क़िरदार।। कवि अमर सक्सेना के भाव थे – तिरंगे में लिपटा आऊंगा मैं, वीर बहादुर कहलाऊंगा मैं, वेतन से महोब्बत नहीं मुझे, वतन के लिए मैं जाऊंगा मैं। कवि राशिद हुसैन के अनुसार – माॅं के आंचल की जब हम दुआ हो गए। सर बुलंदी से हम आशना हो गए। जब कभी माॅं की गोदी में सर रख दिया, गम मुकद्दर से अपने हवा हो गए। योगेन्द्र वर्मा व्योम की इन पंक्तियों ने भी सभी के हृदय को भीतर तक स्पर्श किया – माँ का होना, मतलब दुनिया भर का होना है। तकलीफें सहकर भी सारे फर्ज निभाती है। उफ तक करती नहीं हमेशा ही मुस्काती है। उसका मकसद घर-आँगन में खुशबू बोना है। प्रो. ममता सिंह की अभिव्यक्ति थी – मेरी प्यारी मांँ ने मुझको जीवन का उपहार दिया। जाग जाग कर रात रात भर ,ममता और दुलार दिया ।। विवेक निर्मल ने कहा – हो गया बूढ़ा मगर अब भी दुलारती है ओ लला कह कर मुझे अब भी पुकारती है। लोकप्रिय शायर ज़िया ज़मीर ने अपनी इस प्रस्तुति से सभी को भाव विभोर कर दिया – बांधना घर को इक धागे में कितना भारी है। इसमें तुम्हारी सिर्फ तुम्हारी ही हुशियारी है। तुमको है मालूम पिरोना कैसा होता है, मां हो तुम और मां होना ऐसा होता है। वरिष्ठ कवि वीरेन्द्र बृजवासी ने कहा – मुझपे तुमपे या सारी दुनियाँ पे मां भरोसा कभी नहीं करती, तीर, तलवार हों या संगीनें,इनसे तो माँ कभी नहीं डरती। सरिता लाल के भाव थे – जीवन के कुछ अधखुले पन्ने, जो एकाएक खुल जाते है़ं। उसके कुछ अनछुए आयाम, जो उसके पहलू से लिपट जाते हैं। डॉ. मनोज रस्तोगी के अनुसार – जीवन में पग-पग पर याद आती है माॅं। मन के आंगन को महका जाती है माॅं। सुप्रसिद्ध शायर डॉ. मुजाहिद फ़राज़ का कहना था – ख़ुद भी आग़ोश में बचपन की वो जाती होंगी, माएँ जब लोरियां बच्चों को सुनाती होंगी। महबूब हो , बीवी हो,बहन हो कि हो बेटी, माँ जैसा मुहब्बत का समंदर नही देखा। कवि श्रीकृष्ण शुक्ल ने कहा – लगता है तुम यहीं कहीं हो, छिपी हमारे पास। यदा कदा होता रहता है, माँ तेरा अहसास। वरिष्ठ कवयित्री डॉ. पूनम बंसल के अनुसार – जीवन के तपते मरुथल में मां गंगा की धार है। अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर मां गीता का सार है। उसकी खुशबू हर कोने में मां घर का श्रृंगार है।। फक्कड़ मुरादाबादी की अभिव्यक्ति थी – ममता ने आंचल फैलाया, दामन ने जग से दुबकाया। उठी लहर दर्द की जब भी, उसका चेहरा सामने आया। रामदत्त द्विवेदी के उद्गार थे – माॅं ! तुम हो आंगन की तुलसी, सबके मन को हर्षाती हो। योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा आभार-अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम समापन पर पहुॅंचा।
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