एम. तराणेकर
(कवि, लेखक व समीक्षक)
इन्दौर, (मध्यप्रदेश)
तुम दिखीं वैसी ही खिली-खिली…
आज मुझे तुम दिखीं वैसी ही खिली-खिली,
जब एकांत में मुझसे थीं; पहली बार मिली।
तुम्हारे दो बेटे और हवा से बातें करती गाड़ी,
एक नए स्टाइल में पहनी हुई थीं, वो साड़ी!
बहुत सुंदर व मनमोहक लग रही थी प्यारी।
आज मुझे तुम दिखीं वैसी ही खिली-खिली,
जब एकांत में मुझसे थीं, पहली बार मिली।
जब तुम्हें लगती थी धूप, कर देता था छाँव,
आती थीं तुम घूंघट में देखता रहता था गाँव,
तुम्हें ना चुभे कोई काटा मैं देखता था पाव।
आज मुझे तुम दिखीं वैसी ही खिली-खिली,
जब एकांत में मुझसे थीं, पहली बार मिली।
तुम्हारी ख्वाहिश और मेरी थीं मजबूरियाँ,
यूँ शनै: शनै: बढ़ती गई हमारे बीच दूरियाँ!
ज़िन्दगी यूँ चली एक-दूजे को मिले बेलियाँ।
आज मुझे तुम दिखीं वैसी ही खिली-खिली,
जब एकांत में मुझसे थीं; पहली बार मिली।
मेरी भी दो बेटियाँ; रिश्तों की अठखेलियाँ?
आज हम सभी हैं अलग-अलग; जुदा-जुदा,
हम कभी हुआ करते थे एक-दूसरे पर फिदा!
रिश्तों की कैसी पहेली कहना पड़ा अलविदा।