डॉ0 हरि नाथ मिश्र, अयोध्या (उ0प्र0)
प्रेम-पथ(16/16)
प्रेम-डगर है ऊभड़-खाभड़,
इसपर चलो सँभल कर भाई।
इसमें होती बहुत परीक्षा-
असफल यदि, हो जगत-हँसाई।
दाएँ-बाएँ निरखत चलना,
सदा बिछे काँटे इस पथ पर।
थोड़ी बुद्धि-विवेक लगाना,
रहे नियंत्रण मन के रथ पर।
यदि हो ऐसी पथ की यात्रा-
निश्चित मिले सफलता भाई।।
असफल यदि, हो जगत-हँसाई।।
जीवन-पथ को करे सुवासित,
विमल प्रेम की सुंदरता ही।
सात्विक यात्रा प्रेम-डगर की,
सदैव दिलाए अमरता ही।
तन की नहीं हृदय की शुचिता-
यात्रा करती है सुखदाई।।
असफल यदि, हो जगत-हँसाई।।
एक-दूसरे की चाहत यदि,
रहती प्रेम में एक समान।
तभी प्रेम-पथ हो निष्कंटक,
प्रेमी ऐसे होते महान।
इसी भाव को रख पथ-यात्रा-
करती रहती है कुशलाई।।
असफल यदि, हो जगत-हँसाई।।
जिसने गिने मील के पत्थर,
उनका ही प्रेम अधूरा है।
यह तो पथ है दीवानों का,
जो बिना गिने पथ पूरा है।
जिसने समझा इसी मर्म को-
पथ-मिठास ही उसने पाई।।
असफल यदि, हो जगत-हँसाई।।
पथ चाहे जैसा भी रहता,
सच्चा प्रेमी बढ़ता जाता।
प्रेम-गीत को गा-गा कर वह,
मंज़िल अपनी रहता पाता।
जीवन का उद्देश्य प्रेम है-
इसको माने सही कमाई।।
असफल यदि, हो जगत-हँसाई।।