‘सुरभित आसव मधुरालय का’ 7

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डॉ0 हरि नाथ मिश्र, अयोध्या (उ0प्र0)

 

‘मधुरालय’

              ‘सुरभित आसव मधुरालय का’ 7

अन्न-फूल-फल बदन सँवारें,

रक्त-तत्त्व संचार करें।

रचे रक्त इस तन की पुस्तिका-

यह अक्षर-रोशनाई है।।

अक्षर बिना न पुस्तक सार्थक,

रक्त बिना तन व्यर्थ रहे।

रक्ताक्षर का मेल निराला-

पुस्तक-जतन बधाई है।।

यह पुनीत मधुरालय-आसव,

मन स्थिर,तन स्वस्थ रखे।

आसव औषधि है अमोघ इक-

करता रोग छँटाई है।।

दान अभय का मिला सुरों को,

पीकर ही अमृत -हाला।

अमर हो गए सभी देवता-

माया नहीं फँसाई है।।

हाला कहो,कहो या आसव,

दोनों मधुरालय -वासी।

दोनों की है जाति एकही-

यह सुर-पान कहाई है।।

कह लो इसको अमृत या फिर,

कहो सोमरस भी इसको।

देव-पेय यह देत अमरता-

लगती नहीं पराई है।।

ताल-मेल सुर-नर में रखती,

अपन-पराया भेद मिटा।

दिया स्वाद जो सुर-देवों को-

नर को स्वाद दिलाई है।।

जग-कल्याण ध्येय है इसका,

करे मगन मन जन-जन का।

तन-मन मात्र निदान यही है-

रखे नहीं रुसुवाई है।।

कहते तन जब स्वस्थ रहे तो,

मन भी स्वस्थ अवश्य रहे।

तन-मन दोनों स्वस्थ रखे यह-

हाला जगत सुहाई है।।

जब भी तन को थकन लगे यदि,

मन भी ढुल-मुल हो जाए।

पर आसव का सेवन करते-

मिटती शीघ्र थकाई है।।

लोक साध परलोक साधना,

सेतु यही बस आसव है।

साधन यह है पार देश का-

करता सफल चढ़ाई है।।

मिटा के दूरी सब शीघ्र ही,

मेल कराता अद्भुत यह।

मिलन आत्मन परमातम सँग-

कभी न देर लगाई है।।

एक घूँट जब करे गला तर,

अंतरचक्षु- कपाट खुले।

भोग विरत मन रमे योग में-

भागे भव-चपलाई है।।

सकल ब्रह्म-ब्रह्मांड दीखता,

करते आसव-पान तुरत।

विषय-भोग तज मन है रमता-

जिससे नेह लगाई है।।

 

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