पठनीयता का अभाव, सोशल मीडिया और लघु साहित्यिक पत्र पत्रिकाएं।

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विवेक रंजन श्रीवास्तव।

पठनीयता का अभाव, सोशल मीडिया और लघु साहित्यिक पत्र पत्रिकाएं।

मुझे स्मरण है, पहले पहल जब टी वी आया तब पत्रिकाओं और किताबों पर खतरा बताया गया था अब सोशल मीडिया का स्वसंपादित युग आ गया है। अतः यह बहस लाजिमी ही है कि इसका पत्रिकाओं पर क्या प्रभाव हो रहा है। जो भी हो दुनियां भर में केवल प्रकाशित साहित्य ही ऐसी वस्तु हैं जिनके मूल्य की कोई सीमा नहीं है। इसका कारण है पुस्तकों में समाहित ज्ञान और ज्ञान तो अनमोल होता ही है। लघु पत्रिकाओं के वितरण का कोई स्थाई नेटवर्क नहीं है। वे डाक विभाग पर ही निर्भर हैं, अब सस्ते बुक पोस्ट की समाप्ति हो गई है। अतः मुद्रण से लेकर वितरण तक ये पत्रिकाएं भारी संकट से जूझ रही हैं। अब लघुपत्रिकाओं के लिए ई बुक, फ्लिप फॉर्मेट, पीडीएफ में सॉफ्ट स्वरूप मददगार साबित हो रहा है। पठनीयता का अभाव, कागज और पर्यावरण की चिंता पुस्तकों के हार्ड कापी स्वरूप पर भारी साबित हो रही है। सचमुच एक कागज खराब करने का अर्थ एक बांस को नष्ट करना होता है यह तथ्य अंतस में स्थापित करने की जरूरत है।

प्रकाशन सुविधाओं के विस्तार से आज रचनाकार राजाश्रय से मुक्त अधिक स्वतंत्र है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार आज हमारे पास है। आज लेखन, प्रकाशन व वांछित पाठक तक त्वरित पहुँच बनाने के तकनीकी संसाधन कहीं अधिक सुगम हैं। लेखन और अभिव्यक्ति की शैली तेजी से बदली है, माइक्रो ब्लागिंग इसका सशक्त उदाहरण है। पर इन सबसे अलग आज नई पीढ़ी में पठनीयता का तेजी से ह्रास हुआ है। साप्ताहिक साहित्यिक अखबार ई वर्जन में दूर दूर पहुंच जाते हैं, लेखक अपनी रचना के स्क्रीन शॉट सोशल मीडिया पर लगाकर धन्य अनुभव करता है। लेखन का पारिश्रमिक मिलना गुजरे जमाने की बात हो चुकी है। साहित्यिक किताबों की मुद्रण संख्या में कमी हुई है। आज साहित्य की चुनौती है कि पठनीयता के अभाव को समाप्त करने के लिये पाठक व लेखक के बीच उँची होती जा रही दीवार तोड़ी जाये। पाठक की जरूरत के अनुरूप लेखन तो हो पर शाश्वत वैचारिक चिंतन मनन योग्य लेखन की ओर पाठक की रुचि विकसित की जाये। आवश्यक हो तो इसके लिये पाठक की जरूरत के अनुरूप शैली व विधा बदली जा सकती है, प्रस्तुति का माध्यम भी बदला जा सकता है। इस दिशा में लघु पत्रिकाओं का महत्व निर्विवाद है। लघु पत्रिकाओं का विषय केंद्रित, सुरुचिपूर्ण पाठकों तक सीमित संसार रोचक है।

समय के अभाव में पाठक छोटी रचना चाहता है, तो क्या फेसबुक की संक्षिप्त टिप्पणियों को या व्यंग्य की कटाक्ष करती क्षणिकाओं को साहित्य का प्रमुख हिस्सा बनाया जा सकता है ? यदि पाठक किताबों तक नही पहुँच रहे तो क्या किताबों को पोस्टर के वृहद रूप में पाठक तक पहुंचाया जावे ? क्या टी वी चैनल्स पर किताबों की चर्चा के प्रायोजित कार्यक्रम प्रारंभ किये जावे ? ऐसे प्रश्न भी विचारणीय हैं। जो भी हो हमारी पीढ़ी और हमारा समय उस परिवर्तन का साक्षी है जब समाज में कुंठाएं, रूढ़ियां, परिपाटियां टूट रही हैं। समाज हर तरह से उन्मुक्त हो रहा है, परिवार की इकाई वैवाहिक संस्था तक बंधन मुक्त हो रही है। अतः हमारी लेखकीय पीढ़ी का साहित्यिक दायित्व अधिक है। निश्चित ही आज हम जितनी गंभीरता से इसका निर्वहन करेंगे कल इतिहास में हमें उतना ही अधिक महत्व दिया जावेगा।

किताबें तब से अपनी जगह स्थाई रही हैं जब पत्तों पर हाथों से लिखी जाती थीं। मेरी पीढ़ी को हस्त लिखित और सायक्लोस्टाईल पत्रिका का भी स्मरण है। मैंने स्वयं अपने हाथों से स्कूल में सायक्लोस्टाईल व स्क्रीन प्रिंटेड एक एक पृष्ठ छाप कर पत्रिका छापी है। परिवर्तन संसार का नियम है, आगे और भी परिवर्तन होंगे क्योंकि विज्ञान नित नये पृष्ठ लिख रहा है, मेरा बेटा न्यूयार्क में है, वह ज्यादातर आडियो बुक्स ही सुनता गुनता है किन्तु मेरे लिये बिस्तर पर नींद से पहले हार्ड कापी की लघु पत्रिकाएं और किताबें ही जीवन का हिस्सा है।   (विभूति फीचर्स)

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