“आज भी प्रासंगिक है स्वामी विवेकानंद का चिंतन”।

Spread the love

कुमार कृष्णन।

 

     “आज भी प्रासंगिक है स्वामी विवेकानंद का चिंतन”।

 

स्वामी विवेकानन्द संभवतः भारत के एकमात्र ऐसे संत हैं, जो अध्यात्म, दर्शन और देशभक्ति जैसे गंभीर गुणों के साथ-साथ युवा शक्ति के भी प्रतीक हैं। उनकी छवि भले ही एक धर्मपुरूष और कर्मयोगी की है किन्तु उनका वास्तविक उद्देश्य अपने देश के युवाओं को रचनात्मक कर्म का मार्ग दिखाकर विश्व में भारत के नाम का डंका बजाना था। उन्हें केवल चार दशक का जीवन मिला और इसी अल्प अवधि में उन्होंने न केवल अपने समय की युवा पीढ़ी में अपनी वाणी, कर्म एवं विचारों से नई ऊर्जा का संचार किया बल्कि बाद की पीढ़ियों के लिए भी वे आदर्श बने हुए हैं। वे युवाओं के प्रिय इसलिए हैं कि बचपन से लेकर जीवन के अंतिम क्षण तक उनमें प्रश्न और जिज्ञासा का भाव जीवित रहा। स्वामी विवेकानन्द ने धर्म, अध्यात्म, समाज, दर्शन, चिंतन, सभी स्तरों पर वही मार्ग अपनाया जिसे उन्होंने अपनी तर्क बुद्धि और विवेक की कसौटी पर परखने के बाद सही समझा। यही कारण है कि युवाओं के लिए उनका चिंतन आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उनके जीवनकाल में था।

 

देखने में यह बात विचित्र लग सकती है कि आज से सवा सौ वर्ष से अधिक समय पहले उन्होंने भारतीय समाज की उन समस्याओं और प्रश्नों को पहचान लिया था, जो आज भी हमारे युवा वर्ग के लिए चुनौती बनी हुई हैं।

उनके जीवन के लगभग सभी पहलू आज भी प्रासंगिक और सार्थक प्रतीत होते हैं। बहुत-सी बातों में तो वे अपने समय से बहुत आगे थे और एक युगदृष्टा की तरह उन्होंने आने वाली चुनौतियों की ओर स्पष्ट संकेत कर दिया था। उन्होंने जो सोचा, कहा और किया उससे कई पीढ़ियां दिशा प्राप्त करती रही हैं। आज की पीढ़ी की समस्याओं व चुनौतियों पर नज़र डालते हैं तो विवेकानन्द का जीवन और दर्शन और भी अधिक उपयोगी प्रतीत होता है।

आज मानवता भौतिकवाद की अंधी दौड़ और स्वार्थपरता के चौराहे पर खड़ी है और शांति व उदात्‍त जीवन जीने के लिए किसी मार्गदर्शक की तलाश में है। विश्व समाज एक तरह से विचारहीनता तथा आदर्शशून्यता के भंवरों में डूब रहा है। आतंकवाद समूची दुनिया में नया दैत्य बनकर लोगों के सुख-चैन को लील रहा है। हमारा देश भी इस अभिशाप का शिकार है और अनेक नवयुवक इस विनाशकारी रास्ते पर चल रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में विवेकानन्द के विचारों की आवश्यकता और अधिक महसूस होने लगी है। आज की पीढ़ी के लिए समाज सुधारक और देशभक्त संत स्वामी विवेकानन्द के जीवन के कौन से पक्ष अधिक सार्थक व प्रासंगिक हैं, इसका विवेचन करना समीचीन होगा।

वास्तव में, स्वामी जी पहले देशभक्त थे और बाद में संन्यासी या धर्म गुरू। धर्म का सही रूप भारत के लोगों के सामने रखने और विदेशों में भारत की नकारात्मक छवि को उज्ज्वल करने की उत्कंठा ने ही उनसे वो सब कराया जिसे याद करके हम उन्हें देश के शीर्षस्थ महापुरूषों की पंक्ति में बिठाते हैं। किन्तु उनकी देशभक्ति और अपने धर्म के प्रति श्रद्धा एवं आस्था ने उनके तर्कशील और उदार दृष्टिकोण पर कभी ग्रहण नहीं लगाया। वे प्रवृत्ति और चिंतन से सहिष्णु, दूसरों के विचारों का सम्मान करने वाले और सभी संस्कृतियों व धर्मों में समानता के दर्शन करने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने ब्रिटेन और अमरीका में जाकर भारत में धर्म प्रचार में लगी ईसाई मिशनरियों की कार्य प्रणाली की तीखी निन्दा की और इसके लिए वहां के अनेक लोगों के विरोध को झेला, किन्तु उनके मन में ईसाइयों या ईसा मसीह के प्रति कभी घृणा का भाव नहीं उपजा। इसके विपरीत उन्होंने कश्मीर की यात्रा के दौरान अमरीका का राष्ट्रीय दिवस अपने अमरीकी शिष्य-शिष्याओं के साथ मनाया। इसी तरह अमरीका में उन्होंने एक बार अपना पाठ्यक्रम ईसा मसीह के जीवन पर भावपूर्ण प्रवचन से प्रारंभ किया। अमरीका में अनेक गिरजाघरों और ईसाई प्रतिष्ठानों में उनके व्याख्यान व प्रवचन हुए। वे गौतम बुद्ध को अपना आदर्श मानते थे और अपने गुरू भाइयों को समझाते कि जिस प्रकार महात्मा बुद्ध ने अपने शिष्यों को संसार भर में भेज कर धर्म प्रचार किया था उसी तरह हमें भी आत्मशुद्धि और आत्मानुभूति में मोक्ष की कामना न करते हुए देश के उपेक्षित, अशिक्षित और सुप्त समाज को जगाने के लिए आश्रम की चारदीवारी से बाहर निकलना चाहिए। अपने देशाटन के दौरान उन्होंने हिंदू धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों के नेताओं व अनुयायियों से मिल कर सदैव यही समझाने की चेष्टा की कि वे एक ही समग्र सत्‍ता के अंग हैं और सबका उद्देश्य लोगों को सन्मार्ग पर चलकर ईश्वर की ओर ले जाना है। आर्य समाज, बौद्ध धर्म, जैन मत, सनातन धर्म, ब्रह्म समाज आदि सभी मतों के साथ उनका हमेशा सम्पर्क बना रहा। यही कारण है कि देश-विदेश में इतनी बड़ी संख्या में लोगों का समर्थन-सम्मान व श्रद्धा प्राप्त होने के बावजूद उन्होंने किसी नए सम्प्रदाय या मत की स्थापना नहीं की।

स्वामी विवेकानन्द इसी बात पर बल देते रहे कि पश्चिम और पूर्व में कोई द्वंद नहीं है, बल्कि वे एक दूसरे के पूरक बन सकते हैं। पश्चिम अपनी भौतिक और वैज्ञानिक प्रगति के लाभ पूर्व को देकर वहां निर्धनता, अशिक्षा व अज्ञान दूर करने में सहयोग कर सकता है तो पूर्व अपना अध्यात्म और शांति का मूल्य पश्चिम को दे सकता है। इसी विचार को कार्यरूप देने के लिए उन्होंने पश्चिम के लोगों को भारत में काम करने को बुलाया तो भारत से अपने शिष्यों और गुरू भाइयों को पश्चिमी देशों में भेजा। पश्चिम को भारत की वास्तविकता और यहां के अतुल ज्ञान भंडार से परिचित कराने का पहला गंभीर प्रयास स्वामी विवेकानन्द ने ही किया। उनका उदारमना और समन्वयवादी व्यक्तित्व एवं चिन्तन आज की पीढ़ी को सचमुच नई दिशा दे सकता है।

स्वामी विवेकानन्द का सबसे बड़ा गुण था तर्कशील और वैज्ञानिक दृष्टिकोण। अपने इसी गुण के बल पर उन्होंने परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व को व्यवहार की तुला पर ही तौल कर सुलझाया। वे अद्वैतवादी होते हुए भी द्वैत मत के अनुसार काली पूजा कर सकते थे। विवेकानन्द का मूल उद्देश्य समाज और देश का उद्धार करना था और इसमें उनके व्यक्तिगत आग्रह या दृष्टिकोण कभी बाधक नहीं बने। तभी तो वे युवकों से यह तक कहने की हिम्मत जुटा सके कि घर बैठ कर गीता पढ़ने की बजाय मैदान में फुटबाल खेल कर आप ईश्वर को जल्दी प्राप्त कर सकते हैं। वे कहा करते थे कि योग वही कर सकता है जिसने भोग किया हो। भोग के बाद ही योग की आवश्यकता होती है। यह तर्कशीलता और संतुलित दृष्टि आज के युवा स्वामी विवेकानन्द के जीवन से सीख सकते हैं।

हमारे देश में इन दिनों सामाजिक न्याय, दलित विमर्श और स्त्री विमर्श जैसे विषयों की बहुत चर्चा है। कोई विश्वास नहीं करेगा कि स्वामी विवेकानन्द ने सवा सौ साल पहले ही अपने देश की इन समस्याओं को न केवल पहचान लिया था बल्कि उनके समाधान की रूपरेखा भी प्रस्तुत कर दी थी। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि भारतीय समाज वर्णों व जातियों में बंटा है। स्वामी जी ने जातिवाद का खुल कर विरोध किया और रामकृष्ण मिशन के संन्यासियों को निर्देश दिया कि वे उन लोगों की सेवा पर विशेष ध्यान दें जिन्हें समाज अछूत मानकर उपेक्षा करता है। उनके कुछ अनुयायी कहते थे कि आप किसी के भी हाथ का खा लेते हैं। उनका उत्‍तर होता कि मैं तो संन्यासी हूँ इसलिए मेरे लिए कोई ऊंच-नीच नहीं है। यह सच है कि उन्होंने इस समस्या को हल करने के लिए कोई आंदोलन नहीं चलाया, किन्तु उस समय के वातावरण को देखते हुए अपने व्यवहार और आचरण से ऊंच-नीच का भेदभाव मिटाने का क्रांतिकारी संदेश देना अपने आप में कोई छोटी बात नहीं थी।

स्वामी विवेकानन्द ने गरीबों और मज़दूरों के हितों की वकालत करके और अमीर-ग़रीब का भेद मिटा कर सामाजिक समानता व समरसता की आवश्यकता पर बल दिया। गरीबों को समाज में समानता का स्थान दिलाने के लिए उन्होंने ‘दरिद्रनारायण’ शब्द की रचना की। वे अपने साथियों से कहते थे कि ये मज़दूर, किसान और मेहनतकश लोग ही समाज की रीढ़ हैं इसलिए ये ईश्वर का रूप हैं। अंतिम दिनों में अस्वस्थ रहने के कारण जब उनका आश्रम से बाहर आना-जाना बन्द हो गया तो वे पूरा समय आश्रम के संन्यासियों के बीच ही गुज़ारते थे। उन दिनों आश्रम में किसी निर्माण कार्य के लिए संथाल आदिवासी काम कर रहे थे। स्वामी जी उन मज़दूरों के पास जाकर बैठते और उनका दुख-दर्द सुनते।

स्वामी विवेकानन्द भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति को लेकर बहुत चिंतित थे। देश में महिलाओं के प्रति अपराध की बढ़ती प्रवृति के संबंध में उनके विचार और आचरण युवाओं के लिए प्रेरक हो सकते हैं। वे पश्चिम में स्त्रियों के लिए सम्मानजनक स्थान तथा सामाजिक गतिविधियों में उनकी समान भागीदारी से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने अमरीका प्रवास के दौरान अपने एक गुरूभाई को लिखे पत्र में स्वीकार किया कि जब मैं यहां आया था तो मुझे पश्चिम की महिलाओं के बारे में बहुत सी उल्टी-सीधी बातें बताई गई थीं किन्तु अब उनका मुझ से अधिक प्रशंसक कोई नहीं है। स्वामी जी को पश्चिम में मां जैसी कई महिलाएं और माग्रेट नोबल जैसी आदर्श शिष्याएं मिलीं। माग्रेट नोबल यानी भगिनी निवेदिता लंदन में एक स्कूल की प्रिंसिपल थीं और वे उन्हें लड़कियों की शिक्षा के लिए भारत लाए थे। भगिनी निवेदिता पूर्णतया भारतीय बन गईं और अपने को स्त्री शिक्षा तथा रामकृष्ण मिशन के कार्य के लिए समर्पित कर दिया। आज भी हमारे देश की लड़कियां, विशेषकर दलित और निर्धन परिवारों की लड़कियां शिक्षा से वंचित रहती हैं और स्त्रियों की साक्षरता दर पुरूषों के मुकाबले काफी कम है। जब कुछ गुरू भाइयों ने महिलाओं के आश्रम बनाने और महिलाओं की शिक्षा जैसे उपायों पर आपत्ति की तो स्वामी जी ने वैदिक काल की विदुषियों-गार्गी और मैत्रेयी के उदाहरण देकर बताया कि हमारे देश में स्त्री शिक्षा का प्राचीनकाल से महत्व रहा है किंतु हमने मध्यकाल में स्त्रियों के बाहर निकलने और सामाजिक-धार्मिक कार्य करने पर प्रतिबंध लगा दिए।

स्वामी विवेकानन्द अपने देश में गरीबी, अशिक्षा तथा उद्योग-धंधों के अभाव के कारण चिंतित रहते थे। एक संन्यासी का इन सांसारिक झंझटों की चिंता करना असंगत लग सकता है किंतु यह विसंगति ही विवेकानंद को युवा संन्यासी बनाती है। अपनी विभिन्न यात्राओं के समय वे कई राजाओं, नरेशों, दीवानों तथा उच्च अधिकारियों के अतिथि बने। वे इन अवसरों पर अपने मेज़बानों को अपनी रियासत या अधिकार क्षेत्र में विद्यालय खोलने, विज्ञान की शिक्षा शुरू करने और नए उद्योग-धंधे लगाने का सुझाव देते। कई राजाओं ने उनकी बात मानकर अपने यहां नए स्कूल- कालेज खोले। वे शिक्षा और ज्ञान को समाज के उत्थान की कुंजी मानते थे। वे अपने शिष्यों को गांवों में शिक्षा का प्रचार करने के लिए कहते थे। उनकी स्पष्ट धारणा थी कि शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान और कौशल के साथ लोगों में अच्छे संस्कार, आत्मविश्वास और उच्च विचार विकसित करना होना चाहिए। अपने देश में शिक्षा की उपेक्षा का उन्हें दुख था। वे मानते थे कि विज्ञान की शिक्षा से व्यक्ति तर्कशील, निष्पक्ष और संतुलित दृष्टि से सम्पन्न बनता है। उन्होंने स्वयं विज्ञान का अध्ययन किया था। तभी तो वे ईसाई मिशनरियों से कहते थे कि हमें आपसे धर्म की नहीं विज्ञान और टेक्नोलॉजी की शिक्षा की आवश्यकता है। वे जितना बल योग, साधना और आत्मानुभूति पर देते थे, उतना ही समाज की आर्थिक प्रगति, खेलकूद, कृषि और उद्योगों के विकास पर देते थे। एक बार उन्होंने आश्रम में अपने शिष्यों से कहा कि आपकी जितनी दक्षता योग और साधना में होनी चाहिए उतनी ही खेतों में काम करने में होनी चाहिए। साधना करने की तरह आपको कृषि की उपज बेचना भी आना चाहिए।

स्वामी विवेकानन्द दार्शनिक तथा युगदृष्टा के साथ-साथ समाज के उत्थान के प्रति समर्पित कर्मयोगी और समाजसेवी संत थे। उनका जीवन केवल आज की पीढ़ी ही नहीं, भावी पीढ़ियों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा। स्वामी जी सच्चे युवा संन्यासी, समाज चिंतक तथा राष्ट्र सेवक थे, जिनका जीवन आज की पीढ़ी को दिशा देने में सहायक हो सकता है।  (विभूति फीचर्स)

  • Related Posts

    फिर संकट में हरियाणा की ‘सुकन्या समृद्धि’ घटती बेटियां: कोख में ही छीन रहें साँसें

    Spread the love

    Spread the loveप्रियंका सौरभ  रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,  आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)            फिर संकट में हरियाणा की ‘सुकन्या समृद्धि’  …

    गोंडा विकास खंड वजीरगंज के डुमरिया डीह कस्बा स्थित राजेंद्र नाथ लहिड़ी स्मारक इंटर कालेज में संस्थापक वीरेन्द्र बहादुर सिंह उर्फ लल्लन सिंह की 12वीं पुण्यतिथि मनायी गयी।

    Spread the love

    Spread the loveब्यूरो गोंडा (उ. प्र.): सियाराम पाण्डेय।                                           गोंडा…

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    You Missed

    सांस तेरी-मेरी चल रही…!

    • By User
    • January 11, 2025
    • 3 views
    सांस तेरी-मेरी चल रही…!

    “आज भी प्रासंगिक है स्वामी विवेकानंद का चिंतन”।

    • By User
    • January 11, 2025
    • 4 views
    “आज भी प्रासंगिक है स्वामी विवेकानंद का चिंतन”।

    फिर संकट में हरियाणा की ‘सुकन्या समृद्धि’ घटती बेटियां: कोख में ही छीन रहें साँसें

    • By User
    • January 11, 2025
    • 5 views
    फिर संकट में हरियाणा की ‘सुकन्या समृद्धि’  घटती बेटियां: कोख में ही छीन रहें साँसें

    गोंडा विकास खंड वजीरगंज के डुमरिया डीह कस्बा स्थित राजेंद्र नाथ लहिड़ी स्मारक इंटर कालेज में संस्थापक वीरेन्द्र बहादुर सिंह उर्फ लल्लन सिंह की 12वीं पुण्यतिथि मनायी गयी।

    • By User
    • January 11, 2025
    • 5 views
    गोंडा विकास खंड वजीरगंज के डुमरिया डीह कस्बा स्थित राजेंद्र नाथ लहिड़ी स्मारक इंटर कालेज में संस्थापक वीरेन्द्र बहादुर सिंह उर्फ लल्लन सिंह की 12वीं पुण्यतिथि मनायी गयी।

    ऊखीमठः नगर क्षेत्रान्तर्गत ओकारेश्वर वार्ड के चुन्नी गांव मे 35 वर्षो बाद आयोजित पाण्डव नृत्य के 18 वें दिन पंच देव पाण्डवों ने मन्दाकिनी व मधु गंगा के संगम स्थल निवासनी में गंगा स्नान किया।

    • By User
    • January 11, 2025
    • 4 views
    ऊखीमठः नगर क्षेत्रान्तर्गत ओकारेश्वर वार्ड के चुन्नी गांव मे 35 वर्षो बाद आयोजित पाण्डव नृत्य के 18 वें दिन पंच देव पाण्डवों ने मन्दाकिनी व मधु गंगा के संगम स्थल निवासनी में गंगा स्नान किया।

    अजनबी हूँ मैं इस शहर में

    • By User
    • January 11, 2025
    • 4 views
    अजनबी हूँ मैं इस शहर में