धुंध की राह से ……

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सुमन शर्मा, असिस्टेंट प्रोफेसर, दिल्ली।

 

            धुंध की राह से ……

मुझे दुःख तो हो रहा हैं। शायद कई महीनों तक ठीक से न सो पाऊंगी और न खाना ही खा पाऊंगी। खुद में अर्थहीन हो जाऊंगी ये सच हैं। तुम्हारे बिना अपना वजूद खाली-खाली लगता हैं मुझे। शायद इसीलिए हर अपमान सह कर कर भी मैं तुम्हारे साथ मुस्कुरा देती थी। आज शायद उस अपमान को सहने की सीमा टूट गई थी मेरी इसीलिए मैं अकेले निकल पड़ी हूँ जीवन की राह में। मैं जानती हूँ तुम शायद दो चार बार कॉल करोगे और फिर छोड़ दोगे। मैं जानती हूँ कि तुम भूल जाओगे सब दो चार दिन में, और तुम्हारा जीवन उतनी ही सहजता से चलता रहेगा। ऐसा इसलिए हैं कि तुम्हारे जीवन में सिर्फ मैं नहीं हूँ। बहुत लोग हैं तुम्हारे पास तुम्हारे टाइम-पास करने के लिए। मुझे तो इस पल ये भी महसूस हो रहा हैं कि शायद मैं ही तुम्हारे साथ रहने की जिद में थी जबकि तुम मेरा साथ चाहते ही नहीं थे। तुम्हारे पास तुम्हारी वो दोस्त हैं न तुम्हारी हर जरूरत पूरी करने के लिए। जैसे तुम उसकी हर छोटी-बड़ी जरूरत का ख्याल रखते हो ऐसी ही वो भी तुम्हारे लिए जीती मरती होगी। आज महसूस हो रहा हैं कि क्यों मैं तुम दोनों के बीच में थी क्यों मैं इतनी कोशिश कर रही थी तुम्हारा साथ पाने की, तुम्हारे मन का साथ पाने की। मेरे साथ करने के लिए बस दो ही बातें होती थी तुम्हारे पास। एक तो कपड़ें उतार कर तुम्हारे साथ बिस्तर में सो जाऊँ मैं, और दूसरा उठ कर तुम्हारी दूसरी जरूरतों को पूरा करने के लिए काम में लग जाऊँ। कभी प्यार से दो बोल तो कहे ही नहीं कि शैली तुम्हारा मन क्या हैं ? जब कभी मैंने कोशिश भी कुछ कहने कि तो प्रति उत्तर में यहीं सुनने को मिला कि मेरी कोई सोच ही नहीं हैं। मैं थर्ड क्लास और चीप औरत हूँ। मैं एक बोर करने वाली औरत हूँ इसलिए मैं, तुम्हें बिलकुल भी पसंद नहीं हूँ। आज भी तो तुमने यहीं किया। बहुत हिम्मत करके बताया था मैंने तुम्हें कि मुझे बुखार हैं, उठ नहीं पा रही, पर तुमने नहीं पूछा कि क्या हुआ ? तुम सिर्फ ये कह कर चुप हो गए कि इसमें नया क्या हैं तुम हर बार ऐसे ही ड्रामे करती हो। फिर वहीँ सब थर्ड क्लास, बकवास औरत …… हर बार मेरी गलती, हर बार मैं ही गलत। कभी गलती से तुम्हारी गलती पकड़ी भी गई तो तुमने इतना शोर मचा दिया, अपने आपको इतना कोसा – हाँ मैं तो हू ही गलत, मैं ही बेकार हूँ न जाने क्या-क्या ? कि मुझे ही महसूस हुआ कि मैंने बात शुरू ही क्यों की। कभी बैठ कर नहीं कहा कि हाँ यहाँ सच में कुछ गलत हुआ। तुम्हारा मनोविज्ञान मुझे कभी समझ ही नहीं आया।

अब क्या कहूँ ….. दुःख मना मना कर मन इतना शून्य हो गया हैं कि कुछ महसूस नहीं होता अब। शायद इसीलिए आज मेरी आँखों में आँसू भी नहीं हैं। सब सूख गया हैं। आज पीछे मुड़कर देखती हूँ तो यादों में तुम्हारा चेहरा नजर नहीं आता बल्कि वो शब्द तैर जाते हैं, जिन्होंने मेरी औरत होने की गरिमा को खंडित किया हैं। आज मैं अपनी गरिमा के बिखरे टुकड़ों को इकठ्ठा करके की कोशिश कर रही हूँ। ये दर्पण मुझे दिखा रहा हैं कि मुझमें क्या-क्या और कहाँ-कहाँ टूटा हैं। तुम्हारे साथ बिताया वक्त धुंध जैसा था जहाँ मैंने खुद को खो दिया। आज जीवन के इस आईने से वो धुंध हटाने की कोशिश कर रही हूँ मैं …. पहली बार, सुनो मैं नए रूप में फिर लौट कर आऊंगी तुम्हारे पास ….कहती हुई गिरिजा उठ कर चल पड़ी …..

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