सम्राट विक्रमादित्य और उनकी अविस्मरणीय यशगाथा

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अंजनी सक्सेना।

 

सम्राट विक्रमादित्य और उनकी अविस्मरणीय यशगाथा

 

सम्राट विक्रमादित्य का वर्णन एक अलौकिक व्यक्ति की भाँति अनेक ग्रंथों और लोककथाओं में मिलता है। वे पिछली दो शताब्दियों से जनसामान्य के हृदयों के नायक रहे हैं। उन्होंने विदेशी आक्रांता शकों का सम्पूर्ण उन्मूलन करके भारत भूमि पर धर्म और न्याय की पुनर्स्थापना की।वे इतने लोकप्रिय सम्राट हुए कि अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन गए थे।उनके बारे में कहा जाता है-

 

यत्कृतम् यन्न केनापि, यद्दतं यन्न केनचित्।

यत्साधितमसाध्यं च विक्रमार्केण भूभुजा ॥

 

अर्थात विक्रमादित्य ने वह किया जो आज तक किसी ने नहीं किया, वह दान दिया जो आज तक किसी ने नहीं दिया, वह असाध्य साधना की जो आज तक किसी ने नहीं की।

ऐसे प्रतापी, बलशाली और विद्वान महाराजा विक्रमादित्य का प्रारम्भिक उल्लेख स्कंद पुराण और भविष्य पुराण सहित अन्य पुराणों में भी मिलता है। उसके अतिरिक्त विक्रम चरित्र, कालक-कथा, बृहत्कथा, गाथा-सप्तशती, कथासरित्सागर, बेताल पचीसी, सिंहासन बत्तीसी, प्रबंध चिंतामणि सहित अनेक संस्कृत ग्रंथों में उनके यश का वर्णन विस्तार से किया गया है। जैन साहित्य के पचपन ग्रंथों में विक्रमादित्य का उल्लेख मिलता है। संस्कृत और जैन साहित्य के अतिरिक्त चीनी और अरबी-फारसी साहित्य में भी विक्रमादित्य की कथा उपलब्ध है, जो कि उनकी ऐतिहासिकता को प्रमाणित करती है।

 

विक्रमादित्य यानी वीरता का वह नाम जिन्हें कभी भी कोई भूल नहीं सकेगा। सवा दो हजार वर्षों के बाद आज भी उनके नाम से इतिहास मापा जाता है। ईसा से 101 वर्ष पूर्व जन्मे महान राजा विक्रमादित्य के नाम से अत्यंत प्राचीन हिन्दू पंचांग विक्रम संवत या विक्रमी संवत का आरम्भ हुआ। जिससे आज भी सभी भारतीय घरों में तीज त्यौहारों की गणना की जाती है।

इतिहासकार डॉ.भगवतीलाल राजपुरोहित का मानना है कि अठारह पुराणों में से तीन पुराण स्कंदपुराण, भविष्यपुराण और भविष्योत्तर पुराण में बताया गया है कि कलि संवत 3000 में विक्रमादित्य हुए थे। इस तरह सम्राट विक्रमादित्य का जन्म 101 ईसापूर्व में माना जाता है। वे जब सम्राट बने तो उनकी आयु 20 वर्ष थी। यह घटना 81 ईसा पूर्व की है। उनकी कुल आयु 137 वर्ष 7 माह और 15 दिन की थी। उज्जैन में उन्होंने 100 साल तक शासन किया।

 

विक्रमादित्य की वीरता

विक्रम संवत की गणना के अनुसार लगभग 2288 वर्ष पूर्व जन्मे विक्रमादित्य का वास्तविक नाम विक्रमसेन था। उनके पिता उज्जैन के राजा गन्धर्व सेन और माता सौम्यदर्शना थीं। बचपन से ही निर्भीक और पराक्रमी विक्रम के आगे चलकर भारत के चक्रवर्ती सम्राट बनने की कहानी तो जैसे स्वयं महादेव ने ही लिख रखी थी।

जब बर्बर शकों ने भारत पर आक्रमण किया तो विक्रमादित्य के पिता राजा गर्दभिल्ल यानी राजा गंधर्वसेन के साथ उनका भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में राजा गर्दभिल्ल की पराजय हुई और शकों ने भारत में अपनी जीत की निशानी के तौर पर शक संवत की शुरुआत कर दी। धीरे-धीरे शकों ने भारत के कई भागों को अपने कब्ज़े में ले लिया। जब शकों ने सम्पूर्ण भारत में हाहाकार मचा रखा था तो दूसरी ओर विक्रमसेन अपनी विराट महाकाल सेना तैयार कर रहे थे और फिर विक्रमादित्य ने न केवल शकों को भारत से भागने पर मजबूर कर दिया बल्कि भारत के अपने विशाल साम्राज्य को अरब से लेकर तुर्की तक भी फैला दिया।

 

विक्रम संवत की स्थापना

57 ईसा पूर्व में शकों का काल बनकर युद्ध जीतने के बाद विक्रमादित्य ने शकों पर विजय के उपलक्ष्य में विक्रम संवत की स्थापना की। भारत के इस गौरवमयी विक्रम युग में विक्रमादित्य ने अपने साम्राज्य का विस्तार करना आरम्भ किया। विक्रम युग की महिमा इस तथ्य से ज्ञात होती है कि आज भी भारत के साथ ही नेपाल का भी सर्वमान्य संवत ‘विक्रम संवत’ ही है।

 

 विक्रमादित्य का भव्य साम्राज्य

महाराजा विक्रमादित्य के भव्य साम्राज्य का अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि आज के भारत, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, तज़ाकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, कज़ाकिस्तान, तुर्की, अफ़्रीका, अरब, नेपाल, थाईलैंड, इंडोनेशिया, कंबोडिया, श्रीलंका, चीन और रोम तक, राजा विक्रमादित्य का साम्राज्य फैला हुआ था।

 

विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्न

सम्राट विक्रमादित्य न केवल उच्च व्यक्तित्व के स्वामी थे बल्कि उनमें किसी भी व्यक्ति को परखने की भी अद्भुत क्षमता थी। शायद यही वजह थी कि वे पहले ऐसे राजा थे जिनका दरबार धन्वन्तरी, क्षपंका, अमर्सिम्हा, शंखु खाताकर्पारा, कालिदास, भट्टी, वररुचि, वराहमिहिर जैसे उच्च कोटि के विद्वान और महान नवरत्नों से प्रतिष्ठित था।

 

विक्रमादित्य की न्यायप्रियता

अपने अनुपम साहस, कर्तव्यपरायणता और युद्धकला के लिए प्रसिद्ध महाराजा विक्रमादित्य ऐसे चक्रवर्ती हिन्दू सम्राट थे जिन्होंने न्यायप्रियता, उदारता और ज्ञान के नये कीर्तिमान स्थापित किए। सम्राट विक्रमादित्य की बुद्धिमत्ता, पराक्रम, न्यायप्रियता और महानता के विषय में संस्कृत,प्राकृत, हिन्दी, बंगला, गुजराती आदि बहुत सी भाषाओं में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें बृहत्कथा, बेताल पच्चीसी और सिंहासन बत्तीसी की कहानियां बेहद लोकप्रिय हैं।

सम्राट विक्रमादित्य अपने राज्य की जनता के कष्टों को समझने और उनका हालचाल जानने के लिए वेश बदलकर नगर भ्रमण करते थे और अपने राज्य में न्याय व्यवस्था कायम रखने के लिए हर संभव प्रयास करते थे। इतिहास में वे सबसे लोकप्रिय और न्यायप्रिय राजाओं में से एक माने जाते हैं। उन्होंने अपने राज्य में राम राज्य की स्थापना की और भारतीय संस्कृति को सम्पूर्ण विश्व तक पहुँचाया। तभी तो लगभग सवा दो हजार वर्ष बीत जाने के बाद भी सम्राट विक्रमादित्य की कीर्ति पताका अविस्मरणीय यशगाथा के साथ गर्व से लहरा रही है।   (विभूति फीचर्स)

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