अष्टावक्र गीता-7

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डॉ0 हरि नाथ मिश्र, अयोध्या (उ0प्र0)

 

            अष्टावक्र गीता-7

नमस्कार मुझको रहे, जिसका हो न विनाश।

जग-तृण-ब्रह्मा नष्ट हों, अचरज, मैं अविनाश।।

 

नमस्कार मुझको रहे, मैं तनधारी एक।

बिना गए-आए कहीं, व्याप्त विश्व मैं नेक।।

 

नमस्कार मुझको सतत, अतुल-दक्ष मम रूप।

सकल विश्व धारण करूँ, बिन तन छुए अनूप।।

 

है अचरज, मुझको नमन, जग से दिखे दुराव।

मनसा-वाचा-सोच ही, करती विश्व-लगाव।।

 

ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञाता नहीं, सब कुछ है अज्ञान।

वही अमल मैं पूर्ण हूँ, यह मेरी पहचान।।

 

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