परमार्थ परायण पवन पुत्र हनुमान

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पं. लीलापत शर्मा।

 

 

         परमार्थ परायण पवन पुत्र हनुमान

 

दैवी अनुग्रह प्राप्त करने के लिए पूजा उपासना ही एक मात्र मार्ग नहीं है। इसके अतिरिक्त परमार्थ प्रयोजनों में रत रहने वालों ने भी अध्यात्म क्षेत्र की अभीष्ट सफलताएं पाई हैं। लोक सेवा भी किसी भजन पूजन से कम महत्व की साधना नहीं है। ऐसे व्यक्ति नित्य नियम जितनी थोड़ी उपासना कर लेने से भी उच्चस्तरीय परिणाम प्राप्त कर सकने में सफल हुए हैं। देवर्षि नारद के संदर्भ में उल्लेख है कि वे ढाई घड़ी से अधिक कहीं ठहरते नहीं थे और भक्ति भावना के विस्तार में हरिगुण गाते हुए निरंतर परिभ्रमण करते रहते थे। महर्षि व्यास ने अठारह पुराण लिखे हैं। उनका समय निश्चय ही इस लोक साधना में अधिक और पूजा अर्चना में कम लगता रहा होगा।

चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट आदि ऋषियों ने भजन कम और रोगियों की व्यथा निवारण के लिए पुरुषार्थ अधिक किया था। वे जानते थे कि भगवान की अनुकंपा के अधिकारी वे अधिक होते हैं जो उनकी संतान को सुखी समुन्नत बनाने में निरत रहते हैं। जिन्हें उपासना की सरलता देखकर उतने भर से जीवन लक्ष्य की प्राप्ति और भगवत् कृपा उपलब्ध हो जाने की बात सूझती है उन्हें भी बताया जाता है कि आराधना बीजारोपण के समान है, उसे अंकुरित, पल्लवित और फलित, विकसित बनाने के लिए साधना का खाद-पानी लगाने की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। साधना का संगम महामानवों जैसी उदात्त जीवनचर्या एवं लोकमंगल के निमित्त किए गए त्याग बलिदान के समन्वय से बनता है। जो केवल भजन पूजन भर को सब कुछ मान लेते हैं वे कमान वाले तीर को घुमाते तो फिरते हैं पर वे उससे लक्ष्य बेध का प्रयोजन पूरा नहीं कर पाते। इन दिनों विशिष्ट परिस्थिति है। इसमें सब काम छोड़कर जीवन और मरण के झूले में झूलती हुई मानवता की प्राण रक्षा को सर्वोपरि महत्व मिलना चाहिए। जप, अर्चन, व्रत अनुशासन एवं विशिष्ट ध्यान के त्रिवेणी संगम को इतना पर्याप्त न मान लेना चाहिए कि उतने भर से आत्मशोधन का प्रयोजन भली प्रकार पूरा होता रहेगा। प्रयास पुरुषार्थ का नियोजन उस युग सृजन प्रक्रिया में किया जाना चाहिए, जिसमें स्वार्थ और परमार्थ का, आत्म कल्याण और लोकमंगल का उभयपक्षीय प्रयोजन पूर्ण होता है।

ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति के लिए कैसा जीवन क्रम अपनाया जाना चाहिए इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं पवन पुत्र हनुमान। उन्हें राम के निकटतम आत्मीयों में गिना गया है। राम पंचायतन में कुटुंब की दृष्टि से तो चारों भाई तथा सीता मिलकर पांच होते हैं पर स्थापनाओं में हनुमान को भी रखा गया है और नाम पंचायतन होते हुए भी उसके सदस्यों की संख्या पांच न रहकर छ: हो जाती है जबकि हनुमान रघुवंशी तो क्या मनुष्यवंशी भी नहीं थे।

पवन पुत्र की चरम उपलब्धि है- रामावतार का निकटतम ही नहीं सूत्रसंचालक बन जाना। इस वस्तुस्थिति का प्रकटीकरण उस चित्र से होता है जिसमें हनुमान को विशालकाय दिखाया गया है और राम लक्ष्मण उनके दोनों कंधों पर छोटे बालकों की तरह दिखाई पड़ते हैं। प्रकारांतर से इसका तात्पर्य होता है उन उत्तरदायित्वों का परोक्ष रूप से वहन करना जो प्रत्यक्षत: राम लक्ष्मण द्वारा निभाए गए समझे जाते हैं। समयानुसार उन्हें इस साहसिक श्रद्धा का सत्परिणाम भी व्यापक कृतज्ञता के रूप में मिला है। भारत में पाए जाने वाले राम मंदिरों की तुलना में हनुमान मंदिरों की संख्या प्राय: दस गुनी अधिक है। इसका तात्पर्य राम के प्रति अश्रद्धा नहीं वरन् हनुमान के प्रति कृतज्ञता का प्रकटीकरण है।

यह उच्चस्तरीय सफलता हनुमान को उपहार अनुदान में नहीं मिली थी वरन् उन्होंने उसे महंगा मूल्य देकर खरीदा था। उनने अपने रोम रोम में राम को बसा लिया था। ”राम काज कीन्हें बिना मोहि कहां विश्राम” की रट लगी रहती थी और इसके लिए अपनी समग्र चेतना और तत्परता नियोजित किए रहते थे। उनके हृदय में अन्य कोई निजी इच्छा महत्वाकांक्षा न थी। एकात्म की स्थिति में निजी लिप्सा लालसाएं विसर्जित ही करनी पड़ती हैं। सीता को यह वस्तुस्थिति एक बार उन्होंने हृदय चीर कर दिखाई थी।

पवन पुत्र के प्रति अपनी भावना व्यक्त करते हुए राम ने अयोध्या लौटने पर गुरु वशिष्ठ के सम्मुख अपनी समस्त सफलताओं का श्रेय हनुमान को देते हुए उन्हें भरत की तरह प्राण प्रिय बताया था। यह उभयपक्षीय आत्मीयता इतनी सघन कैसे हो सकी, इसमें भावुकता का उभार या अनुग्रह जैसा कोई कारण नहीं था। उसके मूल में उन साधनाओं का चमत्कार था जो इष्टदेव का ध्यान पूजन करने तक सीमित नहीं रहतीं वरन् उसकी इच्छा को अपनी इच्छा का समर्पण करके अपने साधनों को उसी की पूर्ति में खपा देती हैं। राम पंचायतन में सदस्य वस्त्राभूषण पहने सम्मानित स्थान पर बैठे दृष्टिगोचर होते हैं, पर पवनपुत्र के शरीर पर लज्जावस्त्र की तरह लंगोटी मात्र है और उन्होंने अपना स्थान सबसे नीचे चरणों के समीप बैठने का बनाया है।

राम से हनुमान का संपर्क जिस दिन से हुआ उस दिन से जीवन पर्यन्त वे उन्हीं के छोटे बड़े कार्यों की पूर्ति में अहर्निश लगे रहे। उन सभी कृत्यों की गणना कर सकना तो कठिन है पर पांच उनमें प्रमुख हैं- (1) सुग्रीव को अपनी समस्त सेना राम काज में नियोजित कर लेने के लिए सहमत कर लेना। (2) सीता को खोजे बिना वापस न लौटने का प्राण प्रण संकल्प करना और उसे निभाना। (3) समुद्र लांघने और लंकादहन का एकाकी दुस्साहस करना। (4) लक्ष्मण को पुनजीर्वित करने के लिए सुषेण वैद्य को चुरा कर लाना ही नहीं वरन् पर्वत समेत संजीवनी बूटी प्रस्तुत करना। (5) रामराज्य की स्थापना में अश्वमेघ सरीखे असंख्य प्रयोजनों की पूर्ति में अंतिम सांस तक लगे रहना। ऐसे अनेक अन्यान्य कार्य भी हैं जिनकी पूर्ति में सर्वतोभावेन निरत रहकर उन्होंने वह श्रेय पाया जिसे ”राम से अधिक राम के दासा” वाली उक्ति में रामायणकार ने प्रकट किया है।

पवन पुत्र की जीवनचर्या में पूजा अर्चना के मनुहार उपचार कितने थे, इसका कुछ अता पता नहीं चलता। संभव है, वे नित्य कर्म स्वल्प रहने के कारण पर्यवेक्षकों की दृष्टि में महत्वपूर्ण नहीं रहे हों। अतएव उनकी खोज या चर्चा अनावश्यक समझी हो। सर्वविदित वे प्रसंग ही हैं जिनमें उनकी सघन श्रद्धा सेवा साधना बनकर उफनती उछलती दृष्टिगोचर होती है।

अवतारों की पुण्य प्रक्रिया जहां धर्म का नियमन तथा धर्म का संवर्धन करके सृष्टि संतुलन बनाने की प्रतिज्ञा निभाती हैं वहां एक काम और भी करती है कि अपने सहचरों को उच्चस्तरीय श्रेय के अनुदान देकर जाती है। शबरी, केवट, भरत, लक्ष्मण, उर्मिला, विभीषण, रीछ, वानर, गिद्ध, गिलहरी जैसे सहयोगियों के अनुदान की चर्चा करते समय भी जन जन की भाव श्रद्धा उमड़ती और अश्रुधारा बहती है। राम कथा में से इन प्रसंगों को हटा दिया जाए तो फिर उसमें सामान्य हलचल ही शेष रह जाती है और उस अमृत का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है जिनके कारण राम-नाम, रामराज्य, रामकथा की महिमा गरिमा का बखान किया गया है।

अवतारों के मध्य अनेक बातों में समानता रहती है। अवतारों की इच्छाओं और जिम्मेदारियों का वहन भी उच्चस्तरीय सहकर्मियों को ही करना पड़ता है। इस श्रद्धा सिक्त साहसिकता को अपनाने में उन्हें कितने ही भीतरी कुसंस्कारों और बाहरी दबाव अवरोधों की विपन्नताओं से उसी तरह जूझना पड़ता है जैसा कि पवन पुत्र को त्रिजटा, सुरसा आदि से जूझना पड़ा था। राम को रोकने के लिए भी तो आसुरी प्रवृत्तियां ताड़का, सूर्पणखा बन कर आई थीं। जब राम के मार्ग रोके बिना वे दुष्ट दुरभि संधियां चूकी नहीं तो हनुमान का मार्ग सरल कैसे रह सकता है। उन्हें अपनी लोभ लिप्सा से ही नहीं उलझनों परिस्थितियों से अपने अपने ढंग से निपटना पड़ा है। अग्नि परीक्षा से गुजरे बिना खरे सोने की प्रामाणिकता भी तो सिद्ध नहीं होती।तराजू का एक पलड़ा भारी होगा तो दूसरा उठेगा। परमार्थ सधेगा तो स्वार्थ में निश्चित रूप से कमी पड़ेगी। जो स्वार्थ सिद्धि के लिए परमार्थ की सोचते हैं वे भूल करते हैं वस्तुत: परमार्थ परायण होने पर श्रेय और प्रेय दोनों का लाभ मिलता है। प्रकाश की ओर चलने से चेहरे पर आभा चमकती है और छाया को पीछे पीछे चलते देखा जा सकता है। छाया के पीछे दौडऩे वाले उसे पकड़ भी नहीं पाते, थकते ही हैं और चेहरे पर अंधेरा छाया रहने से कुरूप भी लगते हैं। साधकों को इसी असमंजस में दोनों पक्षों को तौलने और एक को प्रधानता देने का निर्धारण करना पड़ता है। तराजू के किस पलड़े को भारी किया जाय और किसे हलका किया जाए इसका निर्धारण इन्हीं घड़ियों में करना पड़ता है।

(विनायक फीचर्स)

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