
डॉ0 हरि नाथ मिश्र, अयोध्या (उ0प्र0)
गीत-चैत चितचोर
चैत की धूप अब जब पसरने लगी,
खेत की सारी फसलें भी पकने लगीं।
हो गईं जब सुगंधित भी अमराइयाँ-
याद किसकी जिया को सताने लगी…जानूँ ना??
मस्त खुशबू अमलताश-गुड़हल की जब,
फ़िज़ाओं में रह-रह बिखरने लगी।
हर तरफ़ फैली क़ुदरत की सौग़ात से,
सारी दुनिया भी मानो सँवरने लगी।
देख लीला-प्रणय करतीं तरुणाईयाँ-
याद किसकी जिया को सताने लगी…जानूँ ना??
हर तरफ,हर दिशा में खुशी ही खुशी,
लेके आकार अब जब थिरकने लगी।
अपने साज़ो-हुनर से धरा भी यहाँ,
नित नये चित्र में रंग भरने लगी।
सुन के हर घर में बच्चों की किलकारियाँ-
याद किसकी जिया को सताने लगी…जानूँ ना??
जब परिंदों के पर भी फड़कने लगे,
जब पहाड़ों से झरने उतरने लगे।
तरु-शिखा सुर्ख़ हो जब निखरने लगी,
देख ख़्वाबों में अनजान परछाइयाँ-
याद किसकी जिया को सताने लगी…जानूँ ना??
जब महकने लगी शाम भी चैत की,
ख़ास ख़ुशबू से लबरेज़ सुबहें हुईं।
दिन का आलम न लब्ज़ों में होता बयाँ,
रात की बात अद्भुत यूँ होने लगीं।
जब बजाने लगे तारे शहनाइयाँ-
याद किसकी जिया को सताने लगी…जानूँ ना??
जब मधुर स्वाद ऋतु चैत चखने लगी,
स्वांस में जब शहद सी यूँ घुलने लगी।
झील में जब मछलियाँ मचलने लगीं,
धार थकती नदी की भी थमने लगी।
देख बढ़ती हुईं अपनी दुश्वारियाँ-
याद किसकी जिया को सताने लगी…जानूँ ना।।