डॉ.सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी
मोथरोवाला , फाइरिंगरेंज( सैनिक काॅलोनी), देहरादून।
” कला और संस्कृति को बढ़ावा देने में दीपावली का योगदान”
हमारे देश में त्यौहारों की एक सुदीर्घ परम्परा अतिप्राचीन काल से अनवरत रूप से चली आ रही है। ये त्यौहार सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, ऋतु सम्बन्धी आदि कई प्रकार के होते हैं। सभी की अपनी पृथक-पृथक मान्यतायें होती हैं तथा सबको मनाने का अपना अलग-अलग ढंग होता है। यह कहना अत्युक्ति न होगा कि हमारा भारत वर्ष त्यौहारों का देश है। यहां हर महीने एक नहीं अपितु अनेक तीज-त्योहार मनाते जाते हैं, इनमें दीपावली त्यौहार का अपना अलग ही विशेष महत्व है। यह पर्व वास्तव में एक न होकर अनेक त्यौहारों का समूह है। दीपावली वर्षा ऋतु की समाप्ति के पश्चात कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है, लेकिन इसका शुभारंभ धन तेरस को ही हो जाता है। इस दिन धन के देवता कुबेर और देवताओं के वैद्य धन्वंतरी के पूजन के साथ ही परिवार की उन्नति और खुशहाली के लिये जनमानस सोना, चांदी के आभूषण , धातु के बर्तन, धनियां और झाड़ू को खरीदना अत्यधिक शुभ मानकर खूब खरीददारी करते हैं।
उसके बाद नरक चतुर्दशी जिसे छोटी दीपावली के नाम से जाना जाता है मनाते हैं, मान्यता है कि उस दिन श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध किया था, इसलिए इसे नरक चतुर्दशी और कृष्ण चतुर्दशी नाम से भी जाना जाता है । कार्तिक अमावस्या को दीपावली मनाते हैं, जिसे बड़ी दिवाली भी कहा जाता है। इस दिन रात्रि में माता लक्ष्मी और गणेश जी की पूजा की जाती है। विशेषकर घर की महिलायें और बच्चे रंगोली का निर्माण कर जहां माता सरस्वती का स्वागत की तैयारी करते हैं साथ ही विभिन्न आकृतियों में रंग-बिरंगी रंगोली निर्माण से उनके हाथों की कला का प्रदर्शन भी हो जाता है। घरों को कुम्हारों के द्वारा कलात्मक ढंग से बनाते गये दीपकों को जलाकर सर्वत्र रोशनी करते हैं । ऐसा करना स्वाभाविक भी है क्योंकि “तमसो मां ज्योतिर्गमय” हमारी संस्कृति का मूल मंत्र है । अब तो भले ही मिट्टी के दीपकों के साथ ही मोमबत्ती और बिजली की लड़ियों को भी जलाया जाता है , लेकिन जो महत्ता मिट्टी के दीपकों को जलाने में है वह इनमें कहां ! दीपकों की उपयोगिता का पता तो इस त्यौहार के नामकरण से ही स्पष्ट हो जाती है ।
बड़ी दीपावली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा अथवा अन्नकूट पर्व मनाया जाता है । इस दिन के सम्बन्ध में मान्यता है कि इन्द्र देव के घमण्ड को चूर करने और गोकुल की रक्षा के लिए कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी उंगली में धारण किया था , तबसे गोवर्धन की पूजा की जाने लगी । इस दिन लोग बड़ी श्रद्धा के साथ अन्नकूट का भोग लगाते हैं। इस पर्व को बलराज ( बल्दराज ) नाम से भी पुकारा जाता है। मान्यता है कि पृथ्वी बैल के सींग पर टिकी है, उस दिन कृषि कार्य के सहायक बैल और गायों की विधि विधान के साथ पूजा अर्चना करना अपना परम कर्त्तव्य समझते हैं ।
गोवर्धन पूजा के अगले दिन कार्तिक शुक्ल द्वितीया को भयादूज पर्व मनाया जाता है , इसे यम द्वितीया भी कहते हैं। मान्यता है कि इस दिन यमराज अपनी बहिन यमुना के घर भोजन करने गये और वरदान दिया कि इस दिन जो भी भाई अपनी बहिन के घर जायेगा उसे मृत्यु का भय नहीं सतायेगा । तब से भाई बहिन के घर जाकर उसे दक्षिणा और भेंट स्वरूप कोई वस्तु देना अपना परम कर्त्तव्य समझते हैं । ऐसा करने से प्यार बढ़ता है और सम्बन्धों में मजबूती आती है ।
इस त्यौहारों पर किसान हाल ही में लक्ष्मी के रूप में उत्पन्न सभी अन्नों को सर्व प्रथम पकवान बनाकर देवताओं को अर्पित करना अपना पुनीत कर्तव्य समझते हैं ।
यह त्यौहार मात्र सांस्कृतिक/धार्मिक ही नहीं अपितु वैज्ञानिक भी है । संसार की सार्थकता तेजस्विता में निहित रहती है, निस्तेज होने पर हर एक पदार्थ निष्क्रिय हो जाता है, तब मनुष्य के लिए तो इसकी उपयोगिता और भी अधिक हो जाती है। ईश्वर ने संसार की भलाई के उद्देश्य से सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि इन तीन तेजों को प्रदान किया, इनमें सूर्य सबसे मुख्य तेज है, किन्तु गति क्रम के अनुसार समीप और दूर होने से इस तेज की प्राप्ति में एक रूपता का अभाव रहता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कार्तिक महीने में सूर्य तुला राशिस्थ होने के कारण नीच भाव का हो जाता है। उस समय सूर्य के तेज का हम पर अत्यल्प और विकृत प्रभाव पड़ता है और अमावस्या की रात्रि में चन्द्रमा के तेज का तो सर्वथा अभाव रहता ही है, इसलिए इस अवसर पर अग्नि रूपी तेज ही हमारा सहायक बनता है। इसी वैज्ञानिक और सांस्कृतिक मान्यता के आधार पर दीपावली पर दीपकों को जलाकर अग्नि का सहारा लिया जाता है। घृत दीपक प्रज्वलित करना वातावरण और स्वास्थ्य दोनों के लिए अत्यधिक लाभकारी होता है, ऐसा करने से घी के परमाणु जलने पर सूक्ष्म होकर वातावरण को दिव्य और सात्विक बनाने में सहायक बनते हैं । वातावरण के सात्विक हो जाने से प्राणी मात्र की वृत्तियां अन्तर्मुखी हो जाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप मानसिक शांति प्राप्त होती है। आज भले ही इस पर्व पर आतिशबाजी करने का रिवाज खूब फल-फूल रहा है लेकिन वह हमारी संस्कृति का कभी अंग नहीं रहा और सम्भवतः भविष्य में रहेगा भी नहीं। इस आतिशबाजी के अक्सर भयंकर परिणाम देखने-सुनने में आते हैं, पर कोई इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं होता कि हम ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण फैला रहे हैं, इतना ही नहीं आतिशबाजी से घायल तो रहा दूर बहुत सारे लोग तो काल के गाल में भी समा जाते हैं, पर आते दिन बम, पटाखे और अन्य अनेक प्रदूषण फैलाने वाली आतिशबाजी से अपना मोह नहीं त्याग पाते, यह अत्यंत सोचनीय और चिंतनीय विषय है ।
दीपावली त्यौहार आत्मीयता पूर्ण वातावरण सृजित कर एक दूसरे को बधाई और शुभकामनाएं देने में कोताही नहीं बरतता, इससे सम्बन्धों में आई खटास और रिश्तों में आई दरार की भरपाई आसानी से हो जाती है और हमारी संस्कृति का ” वसुधैव कुटुंबकम् ” का संदेश भी अपने रंग में हर एक को रंगने लगता है । इस पर्व को मनाने पर –
” सर्वे भवन्तु सुखिन सर्वे सन्तु निरामया ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मां कश्चिद् दुःख भाग भवेत् ।।
का सपना भी साकार दिखने लगता है ।
दीपावली जाति, धर्म, सम्प्रदाय के सारे भेदभाव मिटाकर सबको एकता के सूत्र में बांध लेता है, जो हमारी परम्परा और संस्कृति रही है ।
इस अवसर पर अच्छी प्रकार से सफाई की जाती है , जिससे घरों के अंदर बरसात की अधिकता और सूर्य ताप की कमी के परिणाम स्वरूप सीलन बढ़ जाती है, दीप प्रज्जवलित करने और साफ सफाई करने से कई प्रकार के हांनिकारक कीटाणु नष्ट हो जाते हैं और अनेक रोगों से हमारी सुरक्षा हो जाती है ।
महिलायें तरह-तरह के स्वादिष्ट पकवान बनाकर अपनी पाक कला के प्रदर्शन के साथ ही लोगों को अपने स्वादिष्ट व्यंजन खिलाकर आनंद का अनुभव करवाती हैं ।
इस त्यौहार पर प्रज्वलित किते जाने वाले दीपकों के महत्व को जो लोग मात्र परम्परा का निर्वहन मात्र समझते हैं, वे बहुत अन्धकार में हैं, यह क्रिया धार्मिक, सांस्कृतिक के साथ ही वैज्ञानिक भी है। यह बात सिद्ध हो चुकी है कि घृत दीपक प्रज्वलित करने से वातावरण सात्विक हो जाता है जिससे मन की वृत्तियां अन्तर्मुखी हो जाती हैं, परिणामस्वरूप मानसिक शांति प्राप्त होती है। उसके प्रभाव से प्राणियों की बुद्धि, बल , पौरुष और शक्ति में वृद्धि होने लगती है। तभी तो यजुर्वेद ( 2/3 ) में अग्नि को असुरों को दूर करने वाला बताया गया है।
यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि हमारी अनेक प्रकार की समस्याओं का समाधान करने के आधार पर दीपावली पर्व हमारे लिये वरदान सिद्ध होता है । इसी उपयोगिता के आधार पर स्कन्द पुराण में कहा गया है कि –
‘ अग्नि ज्योति , रवि ज्योति , चन्द्र ज्योति ।
स्वथैव च उत्तम: सर्व ज्योतिषां दीपोयम ।’
अर्थात दीपकों की ज्योति अग्नि, सूर्य और चन्द्र ज्योति से भी उत्तम है ।
अतः कहा जा सकता है कि दीपावली पर्व एक ओर जहां अपनी महान परम्पराओं, वैज्ञानिक स्वरूप को अपने में समाहित कर अनेक प्रकार से लाभकारी है, हमारी संस्कृति का आधार स्तम्भ होने के कारण हमारी पहचान है वहीं ऐसी बातों को भी अपने में संरक्षित किते हुये है जिससे मूर्ति कला, चित्र कला, पाक कला, संगीत कला, नृत्यकला, निर्माण कला जैसी अनेक कलाओं को संरक्षित, संवर्धित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
हमें अपने देश की इन महान परम्पराओं, पर्व, त्यौहारों, संस्कृति पर गर्व है, जैसा कि शास्त्रों में भी यशोगान किया गया है –
धन्यं हि भारतंवर्षम् , धन्यां भारत संस्कृति ।
भारतीया जना: धन्या: , धन्यास्माकं परम्परा ।।