डॉ. सत्यवान सौरभ, हिसार, हरियाणा
दी गर्दन तब नाप।
चार चवन्नी क्या मिली, रहा न कुछ भी भान।
मति में आकर घुस गए, लोभ मोह अभिमान।।
तन मन धन करता रहा, जिस घर सदा निसार।
ना जानें फिर क्यों उठी, उस आँगन दीवार।।
नहीं लगाया झाड़ भी, जिसने कोई यार।
किस मुँह से होगा भला, वह फल का हकदार।।
भाईचारे के लिखें, उन पर कैसे गीत।
जिनके मन ना प्रीत है, नहीं प्रेम की रीत।।
आज नहीं तो कल छुटे, सौरभ ऐसा साथ।
आखिर कितने दिन चले, धक्के पकड़े हाथ।।
रहा भरोसा अब कहां, जुड़े कहां पर आस।
भाई को जब है नहीं, भाई का अहसास।।
दिया सहारा रात-दिन, बनकर जिसको बाप।
खड़ा हुआ ज्यों पैर पर, दी गर्दन तब नाप।।