डॉ. मिताली खोड़ियार, रायपुर (छत्तीसगढ़)
फिल्म ‘लापता लेडीज’ गढ़ती है महिलाओं की अलग कहानी
कुछ सालों पहले फिल्म आई थी ‘थप्पड़’ जिसमें एक महिला एक थप्पड़ की वजह से अपने पति से अलग होना चाहती है। लोग उसे समझाते हैं, बहलाते हैं कि महज एक थप्पड़ की वजह शादी तोड़ना सही नहीं क्योंकि पति द्वारा पत्नी को मारना एक सामान्य घटना है। महिला को एक थप्पड़ की वजह से वे अनगिनत अदृश्य थप्पड़ दिखाई दे गए, जो उसे रोज पड़ते थे और जिन्हें वह लगातार अनदेखा करती आ रही थी। महिला सम्मान आज भी पितृसत्तात्मक समाज में दुर्लभ है, लापता लेडीस भी महिलाओं की वास्तविक स्थिति हँसी-मजाक के रूप में सबके सामने रखती हैं। गाँव की एक स्त्री हँसकर कहती है – मुझे तो याद ही नहीं कि मुझे खाने में क्या पसंद है। लगभग सभी महिला पात्र हँसते-हँसते ऐसी गंभीर बातें कहती हैं कि लोग एक पल के लिए महिलाओं की दुखद स्थिति को सोचने को मजबूर हो जाए, एक दुल्हन जिसे अपने ससुराल और मायके के पते की ठीक-ठीक जानकारी नहीं है गर्व से कहती है मुझे सबकुछ सिखाया गया है। चाय बेचने वाली महिला उसे बुड़ बक कहकर हँसती है, बेटियों को हम चलना, हँसना, बोलना, खाना बनाना अपमान सहना, विरोध न करना ऐसे गुणों की तो भरपूर शिक्षा देते हैं, पर बाहर दुनिया से कैसे लड़ना है कैसे जीना है, क्या गलत है क्या सही हैं इसकी शिक्षा देना जरुरी नहीं समझते। फिल्म समाज में फैली रूढ़िवादिता पर भी चोट करती है। पति का नाम न लेना, लम्बा घूँघट निकालना, महिला शिक्षा को बढ़ावा नहीं देना, सच ही घरेलू हिंसा, दहेज़ प्रथा पर कम शब्दों में पर गहरी बात करती है।
एक नई दुल्हन जो अपने पति को खोज रही है और दूसरी नई दुल्हन जो आगे पढ़ना चाहती है। देखा जाए तो फिल्म का हर एक पात्र कुछ न कुछ सिखाता है खासकर महिला पात्र चाय बेचने वाली महिला एक संवाद ज्यादा नहीं पर बहुत सशक्त हैं। गाँव की ‘फूल’ कलाकंद बनाकर अपने जीवन की पहली कमाए की खुसी महसूस करती है वही ‘जया’ अपने मनपसन्द विषय में दाखिला लेकर अपने सपनों को जीती है। फिल्मों में पुलिस की छवि आमतौर से नकारत्मक छवि की प्रस्तुत की जाती है पर इस फिल्म में जैसे पुलिस महिलाओं को उनके अधिकारों के बारें में सतर्क करती है। फिल्म में एक गलती की वजह से दो महिलाओं के जीवन में बदलाव आता है। जया अपने सपनों को जीने जा ही रही होती है कि तभी उसे फूल का ख्याल आता है और वह उसे खोजने की योजना बनाती है और उसके प्रयासों से फूल को उसका ससुराल मिल भी जाता है। गाँव की भाभी को पहली बार पता चलता है कि वो एक अच्छी चित्रकार है। महिला ही महिला की दुश्मन होती है इस भ्रम को तोड़ती यह फिल्म कहती है कि महिला ही महिला की सच्ची मदद कर सकती है
फिल्म के अंत में जब फूल अपने पति का नाम जोर से सबके सामने पुकारती है तो लगता है जैसे एक महिला समाज के सारे सड़े-गले नियमों को तोड़कर आगे बढ़ रही है। ‘जया’ जब बस में बैठकर पढ़ाई करने जाती है तो जैसे फिल्म कहती है कि -बेटियों जाओं समाज के सारे नियमों को तोड़कर अपने सपनों को पूरा करो। छत्तीसगढ़ की निवासी होने के नाते फिल्म में छत्तीसगढ़ का नाम सुनकर मेरी आंखे चमक गई। छत्तीसगढ़ में गाँवों और जंगलों के अलावा भी अन्य सुन्दर चीजें हैं। फिल्म में छत्तीसगढ़ के बारे में थोड़ी और अच्छी बातों का शहद घुला होता तो फिल्म थोड़ी और मीठी लगती।