शिवदत्त डोंगरे, खंडवा, मध्यप्रदेश।
मैं जो लिखना चाहता हूँ
लिख नहीं वो पा रहा
मेरे भीतर घुट रहा जो
शब्द में नहीं आ रहा।
मैं बहुत बेचैन हूँ
अब करूँ तो क्या करूँ
हो रहा आभास किंतु
शब्द में कैसे भरूँ।
तुमको मैं पहचानता हूँ
मुझको मैं संभव तभी
कुछ लिखूँ ऐसा कि जिसमें
शब्द की सूरत धरूँ।
कर रहा प्रयास मैं
शब्द -शब्द खोजता
कौन -कौन शब्द हैं वो
जिनमें मैं पूरा भरूँ।
मै लिखूँ हर शब्द में
स्वयं को दिखूँ
मैं पढूँ स्वयं को ही
स्वयं को ही सुनूँ
इसलिए प्रयास मेरा है सतत
मैं वो लिखूँ
जो चेेतना -अवचेतना का
बोध है भीतर मेरे
चेतना को शब्द से अभिव्यक्त
मैं करता रहा
दस -गुना अवचेतना
अभिव्यक्त मैं कैसे करूँ।
चेतना को शब्द सारे
तो अचेतन है निःशब्द
मैं उसी निःशब्द में
शब्द खोजता फिरूँ।
इस अचेतन -बोध को
अब शब्द में कैसे भरूँ?
एक यही प्रयास मेरा
जो स्वयं मेरे लिए है
भीतरी आभास मेरा
कौन -शब्दों में भरूँ।
मैं जो लिखना चाहता वो
लिख नहीं पाया तो क्या
मैं सतत लिखता रहूँगा
‘शब्द जब-तक ढल न लूँ।
बस यही एक कामना है
शेष जीवन में मेरी
शब्द में अभिव्यक्त हो कर
मैं स्वयँ को जान लूँ।
सृष्टि का नियम यही है
व्यर्थ ना जाते प्रयास
एक -दिवस तो
लिख ही लूँगा
मेरा भीतरी आभास।
चेतना -अव -चेतना का योग
मेरा रूप पूरा,
चेतना ही को लिखूँ
अव -चेतना बिन मैं अधूरा।
चेतना -अव -चेतना का योग
मेरी पूर्णता है
चुने -चुने शब्दों के रंगों से
स्व -रूप मैं चित्रित करूँ।
जो अचेतन शब्द
मेरी चेतना में व्यक्त होगा
जो मैं लिखना चाहता हूँ
वो तभी अभिव्यक्त होगा।