चलो चलें गाँव की ओर।

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हरी राम यादव,  सूबेदार मेजर (आनरेरी)

अयोध्या, उ. प्र.।

 

 

चलो चलें गाँव की ओर।

जनवरी के महीने में कड़ाके कि ठंढ़ पड़ रही थी। लोग अपने घरों में पहने ओढ़े दुबके हुए थे। घर से बाहर निकलने की हिम्मत कम ही लोग जुटा पा रहे थे। थोड़ा धूप निकलते ही लोग अपने घरों से बाहर निकलने लगे, कुछ लोग चाय पीने के लिए चौराहे की तरफ चले जा रहे थे। मुन्नू चाचा की चाय की दुकान पर चाय पीने वाले और समाचार पत्र पढने वालों की अच्छी खासी भीड़ जमा हो गई थी। गाँव के चौराहे पर ठीक इसी समय शहर से आने वाली बस आकर रुकी। शहर से आने वाली बस में गाँव के चौराहे पर उतरने वाली सवारियां कम ही होती थीं, कभी कभार ही कोई उतरता थाा। शादी व्याह के मौसम में तो कुछ लोग शहर से गाँव या गाँव से शहर आते जाते रहते हैं लेकिन जनवरी के महीने में कम ही लोग आते जाते हैं। आज बस से इस चौराहे पर उतरने वालों में एक स्त्री और एक पुरुष थे। उनके हाव भाव से ऐसा लग रहा था कि वह काफी दिनों के बाद इस गाँव में आये हुए हैं।

बस से उतरे हुए दंपत्ति ने चाय की दुकान पर इधर उधर नजर दौड़ाई तभी उनकी निगाह चाय की दुकान पर चाय पी रहे एक बुजुर्ग व्यक्ति पर पड़ी। पुरुष ने लपककर उन बुजुर्ग व्यक्ति के पैर छू लिए। पुरुष के पीछे खडी स्त्री ने अपने सिर का पल्लू सँभालते हुए बुजुर्ग व्यक्ति के पैर छुए और “प्रणाम बाबूजी” कहते हुए हाथ जोड़ लिए। बूढ़े व्यक्ति ने अपने माथे पर जोर डालते हुए कुछ याद करने की कोशिश की, फिर कुछ याद करते हुए बोला – अरे सनोज तुम। सनोज तपाक से बोल उठा – हाँ बाबू मै आपका छोटू सनोज। बुजुर्ग ने प्रश्नवाचक मुद्रा में कहा – बेटा कहो कैसे आना हुआ। सनोज थोड़ा झेंपते हुए बोला -बाबूजी अब मैं हमेशा के लिए गाँव आ गया हूँ।

इसी बीच सनोज के गाँव में आने की खबर को एक बच्चे ने उनके बड़े भाई मनोज को जाकर बता दी। मनोज यह सुनते ही कि उसका भाई सनोज गाँव की चाय की दुकान पर आया हुआ है, लम्बे लम्बे क़दमों से चाय की दुकान की तरफ चल पड़ा। चाय की दुकान पर पहुंचते ही दोनों भाई मिलने के लिए एक दूसरे की और दौड़ पड़े। सनोज ने अपने बड़े भाई के झुककर पैर छुए और उनकी पत्नी ने आदरपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर मनोज को प्रणाम किया। फिर तीनों थैला उठाए हुए अपने घर की ओर चल पड़े।

घर पहुँचते ही सनोज की पत्नी अपनी जेठानी को देखते ही लिपट गई, देखकर ऐसा लग रहा था कि वह दोनों कई जन्मों के बाद मिली हों। मनोज के बच्चे अपने घर आए इन लोगों को प्रश्नवाचक दृष्टि से देख रहे थे। हाँ देखें भी क्यों नहीं, इन बच्चों ने अपने चाचा चाची के बारे में अपने माता पिता से सुना था कि उनके चाचा चाची शहर में रहते हैं, अब तक देखा नहीं था। इधर सनोज के आने की खबर गाँव भर में फ़ैल गई। सनोज के आने की खबर सुनकर उनके बचपन के साथी हीरा, तुलसी और गंगा, सनोज से मिलने आ पहुंचे।

बहुत दिनों बाद चारों मित्र एक साथ मिले थे। इन सबका बचपन एक साथ बीता था। एक साथ ही पढाई की थी। इंटर की परीक्षा पास करते ही सनोज को नौकरी मिल गई और वह शहर चला गया। कुछ दिनों बाद उसकी शादी हो गई और वह अपनी पत्नी को अपने साथ ले गया। बस यहीं से उसका गाँव आना जाना कम हो गया और बाद में बंद ही हो गया। लम्बे अरसे के बाद मिलने पर चारों की खुशी का ठिकाना न रहा। चारों मिलकर अपने बचपन में खो गए। पुरानी बातें शुरू हो गई। इसी बीच मनोज का बेटा राहुल एक प्लेट में गुड़ और गिलास में पानी ले कर आ गयाा। चारों ने मिलकर गुड़ खाया और पानी पिया।

बातों का सिलसिला चल निकला। तुलसी ने सनोज से पूँछा – सनोज यह बता कि इतने दिनों बाद गाँव कैसे आना हुआ ? सनोज ने कहा – भाई तुलसी मैं अपना घर बार बच्चों को सौंपकर अब सदा सदा के लिए शहर छोड़कर गाँव आ गया हूँ। मैं शहर की दिखावटी जिन्दगी से तंग आ गया हूँ। मैं अपने गाँव और आप लोगों को भूला नही था। गाँव में जो अपनापन है वह शहरों में कहाँ। शहर में पड़ोस वाला भी अपने पद और पैसे के गुमान में पड़ोस वाले से नहीं बोलता। वहाँ पडोसी की ईर्ष्या में दूसरा पडोसी जलता रहता है। शहरों में हर घर में चाहरदीवारी बनी होती है। शहरी व्यक्ति सोचता है कि कहीं दूसरा व्यक्ति उसके बारे में जान न जाए। शहरों में लोग अपने तक ही सीमित रहना चाहते हैं , समय के आभाव का बहाना बनाते हैं लेकिन ऐसा है नहीं।

तुलसी ने बात को और आगे बढ़ाया। तुलसी ने कहा हाँ भईया यह बात तो सही है। शहर में हर घर में चाहरदीवारी होती है लेकिन हमारे गाँव में सबके घर के सामने खुला दुवार होता है, जिसकी मर्जी चाहे आए जाए। गाँव की सड़क से आता हुआ हर आदमी दिखाई पड़ता है और देखते ही बोल उठता है कि भईया कैसे हो। गाँव में किसी से कुछ छुपा नहीं होता है, सब सबके बारे में जानते हैंं। गांव में लोगों के अन्दर कोई दुराव छुपाव नहीं होता, सब के दिल साफ़ होते हैंं। कुछ दिन पहले मैंने अखबार में पढ़ा था कि शहर में एक बुजुर्ग आदमी की मृत्यु हो गई तो कई दिन बाद दूध वाले से पता चला कि उस घर में जो आदमी रहता था, वह मर गया। शहर में तो पड़ोस वाला, पड़ोस वाले को नहीं जानता तभी तो हर घर के सामने नाम की तख्ती लगी होती है।

पिछले कुछ साल से शहर से नेताओं ने आकर हमारे गाँव का माहौल खराब करने की कोशिश की है। जाति धर्म के नाम पर लोगों के बीच वैमनष्यता की दीवार खड़ी करने का प्रयत्न किया है लेकिन वह कामयाब नहीं हो पाए हैं इसका मुख्य कारण है खुलापन, लोगों का आपस में बातचीत करना। अभी हमारे गाँव में एका है, आपस में प्यार मोहब्बत है। सनोज ने कहा – वैसे शहर में ज्यादातर लोग गाँव से ही जाकर बसे होते हैं, जिनको शहर में रोजी रोटी मिल जाती है और थोड़े से पैसे हो जाते हैं वह लोग शहरों की चकाचौंध से प्रभावित होकर वहीँ बस जाते हैं। आजकल शहरों में प्रदूषण की भरमार है, सड़कें गाड़ियों के बोझ से कराह रही हैं, धुंए से लोगों का दम घुट रहा है, शहरों का पानी पीने योग्य नहीं रह गया है, इन सबका कारण देखा देखी गाँव से शहरों की ओर पलायन है।

हीरा ने सनोज की बात को काटते हुए कहा कि यह बात तो है लेकिन गाँव में कोई रोजी रोजगार तो है नहीं। खेती बाड़ी में कितना होता है, यदि लागत और मेहनत निकाल दिया जाय तो मंहगाई के इस ज़माने में कुछ नहीं बचता। बस फसल काटते ही देखो, जब बेंचने लगो तो साहूकार बीस मीन मेख निकाल देता है। तब किसान औने पौने दाम पर बेचने को विवश हो जाता है। सनोज ने कहा कि सरकारी दुकान पर क्यों नहीं बेचते, वहाँ पर तो सरकारी रेट पर अनाज का दाम मिलता है। हीरा ने कहा भईया आपने किताबों में पढ़ा होगा। वहाँ पैर बैठा बाबू कभी रजिस्ट्रेशन के नाम पर कभी बोरा नहीं है के नाम पर चक्कर लगवाता है। भईया अपनी खेती बाड़ी का काम करें या सरकारी दुकान का रोज चक्कर लगायें। इससे अच्छा है कि साहूकार को ही थोड़ा कम दाम में बेंच दें।

सनोज ने कहा कि खेती बाड़ी में थोड़ा परेशानी तो है लेकिन कम से कम यह तो पता है कि जो खा पी रहे हो वह असली है। शहर में बिकने वाली सब्जी तो पता नहीं कितने दिन की बासी होती है बस पानी मार मार कर ताज़ी बनी होती है। घर ले जाओ और एक दिन रख दो तो उसकी शकल देखने लायक हो जाती है। शहर के दूध का तो कोई भरोसा ही नहीं है कि वह दूध है या और कुछ। गाँव में लोग सामने थन से दुह कर देते हैं और वह भी 32 – 35 रूपये लीटर। शहर में तो 68 रूपये लीटर बिकता है और कब दाम बढ़ जाए पता नहीं। शहर में गन्ने का रस 20 रूपए से 40 रूपए तक बिकता है लेकिन गाँव में तो कितना भी पी लो। तुलसी ने सनोज की बात को काटते हुए कहा – हाँ यह बात तो है। गांव में हवा, पानी सब शुद्ध है। सब्जी तो रोज अपने खेत से तोडकर लाओ।

सनोज ने तुलसी से कहा – शहर के लोग अपनी पूरी जमीन में घर बना लेते हैं और घर का रैंप इतना बढ़ा लेते हैं कि दो तरफ से बने रैंप से आधी सड़क बंद हो जाती है, और इस पर तुर्रा यह कि उसी सड़क पर अपनी गाड़ी भी खड़ा कर देते हैं। रात में हालात यह हो जाते हैं कि किसी को कोई समस्या होने पर बड़ी गाड़ी न तो आ सकती है और न जा सकती है। घर के बाहर सडक की जमीन पर पेड़ लगाकर उस पर भी अपना अधिकार जताते है। नाली का पानी बहने को लेकर आये दिन शहर में सिर फुटव्वल की नौबत बनी रहती है। तुलसी ने कहा – भैया यह समस्या गांव में भी है, गांव में कुछ लोग साल दर साल खेत की मेंड़ को इसलिए काटते हैं कि उनका खेत बढ़ जाए और उपज बढ़ जाए लेकिन यह उनके मन का वहम है। सबके काम में आने वाली सड़क, चारागाह की जमीन, खलिहान की जमीन पर अतिक्रमण नहीं करना चाहिये, उसमें सबका हित है।

सनोज ने तुलसी की बात को काटते हुए कहा – तुलसी, अब तो मै निश्चय करके आया हूँ कि मैं गांव में ही रहूँगा और खाली समय में गांव के बच्चों को पढ़ाऊंगा। इससे मेरी शिक्षा का सदुपयोग भी हो जायेगा और बच्चों की सहायता भी हो जाएगी। जिन बच्चों को पढाई के लिए कोचिंग जाने की जरुरत होती है अब उनको गांव से दूर जाने की जरुरत नहीं पड़ेगी। तुलसी ने बीच में ही कहा – भाई यह तो तुम्हारा बहुत अच्छा विचार है, तुम तो शहर जाकर नहीं बदले। सनोज ने बात को आगे बढाया और कहा कि मै सोच रहा हूँ की मुझे जो पेंशन मिलेगी उससे मैं गांव के उन बच्चों की सहायता करूँ जिनके घर वालों के पास उनको पढ़ाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं है।

गंगा ने कहा – सनोज तुमने शिक्षा के महत्व को अब सही समझा। अब हमारे गांव में शिक्षा की बयार बहेगी। हर घर का बच्चा शिक्षित बनेगा तथा अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सचेत होगा। सनोज अगले दिन की सुबझ से ही अपने काम में लग गया और अपने भाई के बच्चों को पढाना शुरू कर दिया। बच्चे भी बड़ी तन्मयता से अपने पाठ को पढने में लग गए। देखते ही देखते एक महीने के अन्दर गांव और पड़ोस के गांव के बच्चे सनोज के पास पढने आने लगे, सनोज भी पूरी लगन से बच्चों को पढ़ाने लगा। जब वार्षिक परीक्षा का परिणाम आया तो सनोज के गांव के तीन बच्चों ने अपने जनपद में प्रथम दस बच्चों में स्थान प्राप्त किया था।

सनोज की लगन को देखकर उनके पडोसी गांव के और दो लोग आकर स्वेच्छा से बच्चों को पढ़ाने लगे। गांव में पढने वाले बच्चों की संख्या को देखकर लोगों ने आपसी सहयोग से पैसा इकट्ठा कर श्याम पट, कुर्सी और मेज की व्यवस्था कर दी। अब गांव में बाकायदा स्कूल चलने लगाा। गांव के लोगों का कोचिंग का पैसा बचने लगा और बच्चों का बाहर जाकर पढने से समय बचने लगाा। गांव में खुशहाली का रास्ता निकल गया। बड़े बच्चे सनोज की देखा देखी छोटे बच्चों को पढ़ाने लगेे। गांव में पढने और पढ़ाने की एक कड़ी बन गयीी। चार साल बीतते बीतते बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं में चयनित होने लगेे। गांव के जो बच्चे नौकरियो में चयनित हुए, उनके सहयोग से गांव के स्कूल में पढने पढ़ाने के लिए प्रोजेक्टर जैसे आधुनिक साधनों की व्यवस्था हो गयी।

सनोज के प्रयास से उनके गांव में शिक्षा की बयार बहने लगी। कुछ सालों में उनके गांव का नाम जनपद के शिक्षित गांवों में होने लगी। दूर दूर से लोग सनोज के गांव में शिक्षा की इस कड़ी को देखने आने लगे। सनोज के इस छोटे से प्रयास ने उनके गांव की दशा और दिशा बदलकर रख दी। सनोज और गांव के बच्चों की यह पहल राष्ट्रीय स्तर पर पहुँच चुकी थी और इसके लिए सनोज के गांव को राष्ट्रीय स्तर सबसे शिक्षित गांव के रूप में पुरस्कृत किया गया।

 

 

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