एक पहलू ये भी…….

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सुमन शर्मा, (अध्यापिका) दिल्ली सरकार। 

 

     एक पहलू ये भी…….

कल ही एक दोस्त बता रही थी कि उसके पति ने पूरा परिवार (कमाने वाली और सबसे बड़ी बात प्यार करने वाली पत्नी, स्वस्थ बच्चा, माता-पिता), अच्छी नौकरी और समाज में बढ़िया सामाजिक रूतबा होते हुए भी आजकल मनो-चिकित्सक से अपने डिप्रेशन की दवा लेनी शुरू की हैं। आमतौर पर यह माना जाता हैं कि जब जीवन में कोई कमी होती हैं तब इंसान तनाव में आ जाता हैं। आज का समय इस विचार के उलट परिणाम दिखा रहा हैं। आज कल एकल जीवन या अभावों वाला जीवन जीने वाले तो डिप्रेशन में आ ही जाते हैं, विचारणीय हैं कि जिनके पास समाज की धारणाओं के अनुरूप खुशहाल जीवन के सभी मापक मौजूद हैं वो भी डिप्रेशन की दवाएँ खा रहे हैं।

ये आजकल एक नई मनोवैज्ञानिक बीमारी उभर कर सामने आई हैं और वो हैं-संतुष्टि का न होना। सोशल मीडिया ने हर इंसान के लिए प्राप्ति की सीमाओं को खत्म कर दिया हैं इसलिए कहीं भी पहुँच जाओ, उसके आगे एक और राह खुल जाती हैं। मतलब बेचारा इंसान कहीं भी पहुँच जाए, उसे ये संतुष्टि नहीं मिल पाती कि मैंने पा लिया सब।

हमारी माँ-दादी के समय में दोपहर में आटे से जवे बनाते हुए उन्हें 2 किलो बन गए, या कोई स्वेटर पूरा हो गया या दिल भर कर बात कर ली (क्योंकि दोस्त भी सीमित होते थे) मन पूरा संतुष्ट हो जाता और मन में थकावट की जगह एक ताजगी जीते थे उस समय के लोग। लेकिन आजकल फेसबुक, व्ट्सअप और इन्स्टा आदि पर सबके इतने अधिक दोस्त बन गए हैं कि जितने भी दोस्तों से बात कर लीजिए जिनसे बात नहीं हो पाई उनकी संख्या हमेशा ज्यादा रह जाती हैं, जो हमारे दिलों में काम अधूरा रह जाने की कसक और बैचेनी रह ही जाती हैं।

सोशल मीडिया पर इन्स्ताग्राम पर रील देखते जाते हैं लोग पर वो कभी खत्म होने का नाम नहीं लेती, यू ट्यूब देखने लगो तो उसमें वो रील्स चलती ही रहती हैं, खत्म ही नहीं होती। कहने का अर्थ ये हैं कि इतना समय तक लगातार ये सब देखने के बाद भी इतना देखा की संतुष्टि नहीं मिलती बल्कि थकावट या किसी अन्य काम की मज़बूरी में और नहीं देख पाने की कसक मन में रह जाती हैं।

जीवन में काल्पनिक आशावाद फैलाती सोशल मीडिया की कहानियाँ, गीत, फिल्में न तो किसी दुःख को पूरा जीने देते हैं और न किसी ख़ुशी में पागल होने देती हैं। सोशल मीडिया के प्रभाव से मन और मस्तिष्क के भाव इतना जल्दी-जल्दी बदलते रहते हैं कि एक वक्त में इंसान खुद अपने ही मनोभावों में उलझकर रह जाता हैं। वह समझ ही नहीं पाता कि वह किस बात से खुश हैं या किस बात से परेशान हैं, इंसान का मूड लगातार बदलता रहता हैं।

पहले के समय में 60-70 वर्ष की उम्र के बुजुर्ग जीवन भर बहुत काम किया अब आराम करेंगे के भाव के साथ शांत जीवन जीते थे जबकि बूढ़ें लोगों की ही इतनी प्रतियोगिताएँ होती हैं, इतनी अधिक काल्पनिक सक्रियता रहती हैं कि वो शांत, फुर्सत में, अपने जीवन अनुभवों को साझा करने की ललक और परिपक्वता रखने वाले बुजुर्ग अब नज़र ही नहीं आते। जीवन की संध्या में भी जीवन और लोगों से शिकायतें करने वाले असंतोषी बुजुर्ग हर गली मुहल्लें के नुक्कड़ पर या किसी पार्क में अकेले बैठे, घूमते मिल जाएंगे जो बोलने की शुरुआत ही शिकायत से करते हैं। वास्तव में जीवन के प्रति ये असंतुष्टि ही सारी बैचेनियों और डिप्रेशन का आधार हैं …. दोस्त शेष फिर कभी।

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