डॉ0 हरि नाथ मिश्र, अयोध्या (उ0प्र0)
‘गीत'(यथार्थ)
कुछ भी नहीं सरल है जग में,
जीवन है संघर्ष भरा।
पर देता संघर्ष मधुर फल-
करता तरु भी शुष्क हरा।
तिनका-तिनका चुनकर पक्षी,
अपना गृह-निर्माण करे।
उसी घोंसले में वह रहता,
तूफानों से बिना डरे।
जग रहता संघर्षशील ही-
कठिनाई से बिना डरा।।
करता तरु भी शुष्क हरा।।
सोना तपकर कंचन बनता,
मथे दही से घृत निकले।
श्रम-बूदों के संघर्षों से,
गलकर ही पत्थर पिघले।
खाकर रगड़ शिला पर,देखो-
रूप हिना का हो निखरा।।
करता तरु भी शुष्क हरा।।
सिंधु-उर्मियों से लड़ नाविक,
नौका को उस पार करे।
ऊँची उठें भले लहरें भी,
वह बढ़ जाता बिना डरे।
इसी राज को जिसने समझा-
जीवन उसका है सँवरा।।
करता तरु भी शुष्क हरा।।
करे उजाला बाती जलकर,
तम-उर फाड़ प्रभात बने।
कभी न उगतीं फसलें प्यारी,
बिना पसीना बूँद सने।
जीवन तो संघर्ष एक है-
ग्रंथों में है यही धरा।।
करता तरु भी शुष्क हरा।।