उपन्यास मां – भाग 18 आकाशवाणी।

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ब्यूरो छत्तीसगढ़ः सुनील चिंचोलकर।

रश्मि रामेश्वर गुप्ता, बिलासपुर छत्तीसगढ़ 

उपन्यास मां – भाग 18 आकाशवाणी।

मिनी को पता था, माँ क्यों इतनी खुश होती है, आकाशवाणी का प्रसारण सुनके, क्योंकि माँ को पता था पहले भी मिनी को गीत संगीत में, साहित्य में, कला में बहुत रुचि थी। मिनी को जब भी आकाशवाणी से, दूरदर्शन से आमंत्रण आया, माँ ने मना कर दिया जाने से। घर में ये सब किसी को पसंद नही था। सब यही कहते कि तुम सिर्फ पढ़ाई में ध्यान दो। जब मिनी रोने लगती तो माँ मनाते हुए कहती थी-“मिनी! अभी तुम पढ़ाई कर लो। बाद में जब तुम्हारी शादी हो जाएगी तब मेरे दामाद जी जो कहेंगे तुम वही करना।”

माँ के समझाने का तरीका भी बड़ा लाजवाब था। माँ के कहने पर मिनी मान जाती। अड़ोस-पड़ोस में सबको हस्तकला की कोई वस्तुएँ बनाते देखती तो मिनी का भी मन होता कि वो भी कुछ बनाए। पापा से कहती समान लाने तो पापा कहते- “देखो मिनी ! तुम इन सब कामों में अपना समय खराब न करो। जरा सोचो, पढ़ लिख के किसी अच्छे पोस्ट में रहोगी तो ये सारी चीजें ऐसे ही खरीद लोगी। बनाने की क्या आवश्यता है फिर ?”

कभी पापा के साथ बाजार जाने का मन होता मिनी का, जब पापा सब्जी लेने बाजार जाते तो मिनी भी कहती- “पापा! मुझे भी ले चलिए ।” तो पापा समझाते हुए कहते- “मिनी! अभी तुम छोटी हो। छोटे बच्चों को इन्फेक्शन जल्दी होता है। तुम्हे पता है न बाजार में कितनी भीड़ होती है। कही तुम्हे कुछ हो गया तो ?” मिनी समझ जाती।

उस समय रेडियो और टेपरिकार्डर का जमाना था। घर में भैया के पास टेपरिकार्डर था पर मिनी को छूने का परमिशन नही था। अड़ोस-पड़ोस से जब रेडियो या स्पीकर की आवाज आती तो मिनी बड़े ध्यान से सुनती और फिर दिन भर सुने हुए गीत गुनगुनाती। कभी जब आवाज़ जोर की हो जाती तो माँ को डाँटना पड़ता। मां कहती- “मिनी! इतने जोर से गाना अच्छी बात नहीं। लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे?”

तब तो मिनी को गाने के अर्थ भी पता नही होते थे। मिनी दो पल के लिए सहम जाती पर गुनगुनाने की आदत कभी नही गई। वैसे तो माँ भी दिन-रात भजन गुनगुनाते रहती थी। चाचाजी, चाचीजी सभी भजन गाते थे और सुनना भी पसंद करते थे। कभी-कभी तो दादा और दादी जी भी भजन सुनाते मिनी को।

उस जमाने में सावन के महीने में मंदिर में खूब प्रवचन हुआ करते थे। सावन झूले का उत्सव मंदिरों में महीने भर हुआ करता था। माँ जब भी मंदिर जाती थी मिनी को अपने साथ ले कर जाती थी। तब लोगों को लगता था अरे! इतनी छोटी बच्ची बैठकर बड़े ध्यान से प्रवचन सुन रही है। सभी बड़ो का खूब आशीर्वाद मिलता मिनी को। माँ बिना पूजा किये पानी तक नही पीती थी। मिनी ने भी ऐसा करना शुरू कर दिया। जब मिनी दूसरी कक्षा में थी तभी मां के साथ बैठकर गीता पढ़ती थी। रामायण , महाभारत सारे ग्रंथ घर में उपलब्ध थे। घर में सभी को स्वाध्याय करते ही देखती तो मिनी भी पढ़ाई में बिज़ी रहती । कुछ समय मिलते जिसमे दादा-दादी की बाते सुनती। बस यही दिनचर्या थी उसकी। पापा हर कीमती समान मिनी को उपलब्ध करवाते। कभी मिनी को बाहर जाने की आवश्यकता ही नही होती थी।

चाचा जी के भी फैक्ट्री के मालिक होने के कारण धनाभाव कभी मिनी ने देखा ही नही। मिनी ने बचपन से ये देखा कि घर के नौकरों के साथ भी स्नेहपूर्ण व्यवहार किया जाता था। कभी किसी की हँसी नही उड़ाई जाती थी। कभी किसी के साथ दुर्व्यवहार नही किया जाता था। बुरे लोगो से दूर रहने और उन्हें क्षमा करने के गुण भी घर के बड़ो में देखने को मिले। अपने साथ -साथ समाज को आगे बढ़ाना , समाज की उन्नति के लिए जी जान से मेहनत करना। समाज में दान देना। गरीब परिवार की बेटियों का विवाह करवाना। सारे गुण घर के माहौल को मंदिर सरीखे पवित्र बना देते थे। दादा जी और दादी का यही कहना होता था -“बेटा! मन चंगा, तो कठौती में गंगा। इसलिए मन में कभी मैल नही आने देना चाहिए फिर कही जाने की आवश्यकता नही, घर में ही सारे तीर्थो का वास हो जाता है।”

कभी कोई तीर्थ जाते तो वहाँ की तस्वीरे ला के देते। मां उन्ही के दर्शन रोज़ किया करती थी। घर में तस्वीरे भी महापुरुषों की लगाई गई थी और श्री बद्रीनाथ, केदारनाथ स्वामी की।

गोस्वामी तुलसीदास जी के दोहे, संत कबीर के दोहे सूरदास जी के , मीरा के भजन, बालगंगाधर तिलक रचित गीता, श्रीमद्भागवत, विभिन्न श्रेष्ठ विचारकों के विचार ये सभी किताबे घर में ही मिनी को पढ़ने और सुनने मिल जाते थे। एक दिन दादा जी ने मिनी को एक छोटी सी किताब दिखाई और बोले- “देखो मिनी! मैंने तुम्हारा नाम इसी किताब से लेकर रखा है।” किताब का नाम था – “ज्ञान रश्मि”। इस बात ने मिनी के मन को छू लिया । घर में सभी का जैसे उच्च कोटि की किताबो से बहुत ही गहरा नाता था। …………………..क्रमशः

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