डॉ0 हरि नाथ मिश्र, अयोध्या (उ0प्र0)
“मधुरालय”
“सुरभित आसव मधुरालय का”
शिव का वाहन नंदी है तो,
सिंह सवारी गिरिजा की।
सिद्धिविनायक का मूषक तो-
कार्तिक-मोर-निभाई है।।
ये सब दुश्मन हैं आपस में,
वाहन किंतु कुटुंबी एक।
नंदि-सिंह का मेल अनूठा-
उरग-मयूर-मिताई है।।
ऐसा कुल है मधुरालय भी,
आसव जिसका है हृदयी।
इस आसव का सेवन करते-
मिटती भी रिपुताई है।।
नेत्र खुले चखते ही तिसरा,
जो है अंतरचक्षु सुनो।
समता-ममता-नेह-रश्मि को-
इसने ही चमकाई है।।
शिव-आसव मधुरालय-आसव,
सकल जगत हितकारी है।
राग-द्वेष-विष कंठ जाय तो-
हृदय अमिय अधिकाई है।।
शिव-प्रभाव कल्याण-नियंता,
शिव-प्रभाव सा यह आसव।
सज्जन-दुर्जन आकर बैठें-
करता यही मिलाई है।।
हँसी-खुशी सब मिलकर चखते,
आसव-द्रव अति रुचिकर को।
शत्रु-मित्र शिव-कुल के जैसा-
मूषक-मोर-रहाई है।।