“सुरभित आसव मधुरालय का’ 12

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डॉ0 हरि नाथ मिश्र, अयोध्या (उ0प्र0)

 

‘मधुरालय’

  •      “सुरभित आसव मधुरालय का’ 12

बाँस-बाँसुरी की धुनि प्यारी,

प्यारा अमृत आसव यह।

है निनाद शिव-डमरू का यह-

स्वर नव-पंच-मिलाई है।।

माँ-वीणा-झंकार इसी में,

झर-झर झरनों की रुन-झुन।

वायु-वेग की सन-सन सर-गम-

इसने ही तो पाई है।।

सिंधु-नीर ले सूर्य- रश्मि ने,

बादल बनकर अंबर में।

प्यासी महि की प्यास बुझाने-

जल-बूँदें बरसाई है।।

हिम-गिरि की उत्तुंग शिखर से,

जब होता हिम-पात यहाँ।

मधुरालय का आसव,समझो-

छवि निज सूक्ष्म दिखाई है।।

तोयज-तरुवर-तरु-तमाल सब,

ओज-शक्ति लेकर इससे।

धरा-धाम की शोभा बनकर-

किसलय नवल उगाई है।।

पुष्प-गंध, मकरंद-तत्त्व का,

स्वाद लिए आसव फिरता।

मधुर स्वाद इस आसव का ही-

अलि-गुंजन, शहनाई है।।

फूल बैठ तितली यह कहती,

नहीं समझती दुनिया ये-

आसव की क्या गरिमा होती-

आसव दिल-नरमाई है।।

विहग पपीहा पिव-पिव बोली,

कोयल-कंठ-मिठास जो है।

शायद कभी चखा है आसव-

इसी लिए मधुराई है।।

सुर-लय-ताल व छंद-गीत यह,

अदब-कला-संगीत यही।

सकल ज्ञान का कोष यही है-

आसव चित्त रमाई है।।

मधुर मधुरिमा मधुरालय की,

पाकर जीवन धन्य बने।

इसी की गरिमा ने ही मित्रों-

गरिमा जगत बढ़ाई है।।

स्वागत-स्वागत आसव तेरा,

हुए अवतरित जो जग में।

करके तेरा पान मनुज यह-

करे रुचिर जग-जाई है।।

सफल है जीवन उसका मित्रों,

पावन आसव जो चाखा।

होकर मुक्त सकल जग-झंझट-

से जाता हरषाई है।।

मुक्ति-मार्ग का यही प्रणेता,

मधुरालय का आसव ही।I

जीवन-नैय्या भव-सागर से-

इसने पार लगाई है।।

परम धाम-पद पा वह हर्षित,

स्वर्ग-लोक-सुख-स्वाद चखे।

सुर-देवों के साथ बैठकर-

सुर-रस करे पियाई है।।

करो नमन सब शत-शत इसका,

इसने मान बढ़ाया है।।

सकल शक्ति ही सुर-देवों की-

इसमें मात्र समाई है।।

 

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