बंजारा बस्ती

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जनक वैद।

 

                   ‘ कहानी’

                “बंजारा बस्ती”

 

 

हमारे उस छोटे से गाँव में सब मिलजुल कर रहते थे। अर्थात किसी को भी किसी से कोई शिकायत नहीं थी।

एक दिन प्रातः सभी ने देखा कि हमारे खेतों के साथ लगे भाऊ बीर सिंह के खेतों में, रातों रात बंजारा कबीले के कुछ परिवार आ कर बस गये हैं। सच्ची, यह तो एक सोच का विषय था। इसलिए रात के समय सभी दारा(चौपाल)

में इकट्ठा हुए, बीर सिंह के साथ बातचीत करने के लिए कि उसने इतना बड़ा निर्णय कैसे ले लिया।

बंजारा मुखिया को जब इस बात का पता चला तो वह भी दारे में आया और आते ही अपनी पगड़ी, मेरे पिता जी की गोदी में रख दी और यह भी कहा कि वे भी अपनी पगड़ी उसे दें। ( बहुत पहले यह एक रस्म थी कि पगड़ी या दुपट्टा आपस में बदल कर लोग धर्म के भाई बहन बन जाते थे।) और विनय की कि , ‘ कि आप सब भी जानते हो कि हमारा कोई पक्का ठिकाना नहीं होता। हमेशा घूमते ही रहते हैं पर जब बच्चों की शादी करनी हो तब एक जगह ठहरते हैं । इस समय हमारे कबीले की कुछ बेटियों की शादी है। तिथि भी तय हो गई है और सभी को इधर का पता दिया है। आप सब किसी भी बात की चिंता ना करो। हमने तो अपने बच्चों को भी समझा दिया है। किसी का एक तिनके का भी नुकसान नहीं होगा।

बंजारा मुखिया की बातों से सब सहमत हो गये और इस कहावत को सामने रखते हुए कि, ‘धीआं भैना ते सब दिआं सांझिआं हुंदिआं ने’,बंजारा मुखिया की विनय को सहर्ष स्वीकार कर लिया।

 

फसलों के साथ साथ खेत के थोड़े से हिस्से में, मौसमानुसार कुछ सब्जियां जैसे, गाजर,मूली ,शलजम भी लगाई जाती थीं।

कई बार मैं भी यह सब लेने खेत में चली जाती। मुझे देख कुछ बंजारा लड़कियां भी वहां आ जातीं। बेशक वे कुछ भी न बोलती, पर मैं समझ जाती कि उनके मन में क्या है। इसलिए एकाध मूली गाजर उनको भी देती। वे सब वहीं खड़े हुए कचर कचर करते खा लेती। उस समय उन्हें देख मुझे बहुत ही अच्छा लगता। इसलिए मैं उन्हें प्रतिदिन……।

मां को जब इस बात का पता चला तो बजाए नाराज होने के उन्होंने मुझे कहा कि यदि उनको कुछ अधिक दोगी तो उनको और भी खुशी होगी।

अब तक तो मैं कभी कभार ही खेत में जाती। पर अब मैं प्रतिदिन जाने लगी और उन लड़कियों को भरपूर मात्रा में गाजर,मूली दे देती थी। इस प्रकार जितनी खुशी उनको होती, उससे कहीं अधिक मुझे।

धीरे धीरे सरसों, मेथी,गाजर,मूली का मौसम खत्म होने लगा पर कोई बात नहीं क्योंकि फ़लों के राजा,आम भी बड़े जोश खरोश के साथ पधार रहे थे।

अब हम सबका झुकाव उस पेड़ की ओर हो गया। आम के पेड़ की एक शाखा काफ़ी मोटी और फ़ल से लदी हुई थी। उन लड़कियों में से कोई भी, उसे हिलाती जिससे टप टप की आवाज़ करते हुए फ़ल नीचे गिरते। तत्पश्चात रहट के पानी से धो कर सब एक एक आम खातीं।

इससे पहले तो कोई भी खेतों से लौटते समय, आम ले आता था पर अब यह काम मैं स्वयं करने लगी। वैसे भी घर से खेत तक जाने में केवल पाँच मिनट ही तो लगते थे।

एक बार मां ने फ़िर समझाया कि,’उन लड़कियों को एक एक आम देने में इतनी खुशी होती है तो, कुछ अधिक दे दिया करो। ऐसा करने से उनको भी अच्छा लगेगा।’

माँ ने एक बात और भी कही कि, जब तक यह फ़ल ख़त्म हो,’राम केला,’ नामक आम तैयार हो जाएगा।

मुझे माँ की यह बात बहुत अच्छी लगी। अगले ही दिन से मैं उन्हें घर के लिए भी आम देने लगी। ऐसा करने से, उनसे अधिक खुशी मुझे हुई।

समय की सुई हम सबके लिए, मतलब मेरे और बंजारा लड़कियों के लिए मानो रुक सी गयी थी। हम सभी को आम के पेड़ से जुड़ा यह नाता अच्छा लगने लगा था।

एक दिन उस पेड़ के नीचे खड़ी होकर हम सब उसकी ऊपर वाले शाखा को निहार रही थीं तो देखा कि उस शाखा पर अभी भी कुछ आम हैं,जिन्हें परिंदे कुतर कुतर कर खा रहे हैं।

उसी पल एक आम नीचे गिरा। हम सब भेद भाव मिटा कर उसे पकड़ने के लिए एक साथ दौड़ीं, एक दूसरी को पीछे धकेलती हुई।

जिसके हिस्से वह आम आया, वह अपने को भाग्यशाली समझने लगी। पर धत् तेरे की। उसमें तो कुछ भी नहीं था। बस खाली गुठली, जो आम के छिलके में लिपटी हुई थी। गूद्दा तो परिंदों ने खा लिया था। उस पल हम सब खिलखिला कर हँसी।

तभी माँ वहाँ आ गई और कहा, कि घर में अचार के लिए जितने आम चाहिए थे, मैंने ले लिए हैं। तुम सब चिंता ना करो। अब इस पेड़ के सारे आम तुम्हारे।

उस पल हमारी प्रसन्नता का पारावार नहीं था। मैंने सब को कहा कि अगले दिन प्रातः कुछ जल्दी आ जाना। फ़िर सब मिल कर आम खाएंगे।

मेरे इस कथन से उन सबकी खुशी संभल नहीं रही थी। वे सब गाती गुनगुनाती, तालियां बजातीं हुई अपने चटाई से बने घरों की ओर चल दी। मैं भी मॉं के साथ घर लौट आयी।

अगले दिन प्रातः अपने हिस्से का काम निपटा, मैं खुशी खुशी खेतों की ओर गयी तो हैरान, वहां बंजारा बस्ती का नामोनिशान ही नहीं था।

उधर था तो केवल भाऊ बीर सिंह, जो अपने खेत में अगली बुवाई की ख़ातिर हल जोत रहा था।

 

 लेखिका परिचय

 

            साहित्य की मौन साधिका के नाम से प्रसिद्ध जनक वैद चुपचाप बिना किसी को बताए लिखती रही। विशेषकर अपनी जीवनी, जो देश के बँटवारे के समय की त्रासदी पर केंद्रित है।

उनका जन्म 28 मार्च, 1940 को पश्चिमी पंजाब के चक नंबर 468, तहसील समुंदरी, जिला लायलपुर के सिख जमींदार परिवार में हुआ। पिता स्वतंत्रता सेनानी थे। गाँव में स्कूल न होने के कारण घर पर ही पढ़ते हुए पंजाब यूनिवर्सिटी से वजीफा लेकर दसवीं की परीक्षा पास की। उसके बाद शादी हो गई। परिवार की जिम्मेदारियाँ निभाते हुए पंजाब यूनिवर्सिटी से ही हिंदी में स्नातकोत्तर किया। अभी तक छोटी-बड़ी पच्चीस पुस्तकें, जिनमें कहानी, कविता, नाटक, उपन्यास प्रकाशित हुई हैं। बाल साहित्य में विशेष रुचि। हिंदी-पंजाबी की पत्रिकाओं में निरंतर लेखन। हिंदी पंजाबी जालंधर लेखिका संघ और ऑक्सफोर्ड सीनियर सेकेंडरी स्कूल, विकास पुरी, दिल्ली के मैनेजमेंट बोर्ड की पूर्व सदस्य। संस्कार संस्था (हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए) से भी जुड़ी रहीं। प्रस्तुत कहानी लेखिका के बचपन के संस्मरणों के अंशों पर आधारित हैं।

(विनायक फीचर्स)

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