
प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)
सरकारी स्कूल की पीड़ा
जहाँ दीवारें बोली थीं,
“आओ, अक्षर की जोत जलाएँ,”
जहाँ धूप में भी छाँव मिला करती थी
मास्टर जी की टेढ़ी मुस्कान में—
वहाँ अब सन्नाटा पसरा है,
धूल भरे प्रांगण में भविष्य भटकता है।
वो स्कूल…
जो कभी गुरुकुल थे ग़रीब के,
जो बनते थे चौखट
हर भूखे सपने की,
अब आँकड़ों में डूबे हैं,
और नीति में खो गए हैं।
माटी से सने हाथों ने
जो किताबों को पकड़ा था,
अब फिर वही हाथ
ईंट ढोते नज़र आते हैं।
क्योंकि स्कूल तो ‘अप्रासंगिक’ हो गया है
सरकारी रजिस्टर की नज़रों में।
बोर्ड की पट्टी धुँधली हो गई,
पर अभिलाषा अब भी स्पष्ट है।
छत भले टपकती हो,
पर उम्मीदें अब भी सूखी नहीं हैं।
यहाँ अब भी कोई सपना
पेंसिल से ब्रह्मांड रचता है।
सरकारी स्कूल, वह केवल भवन नहीं,
वह आत्मा है उस लोकतंत्र की
जो कहता है—
हर बच्चे को शिक्षा मिले,
बिना मूल्य, बिना भेद।
मगर अब…
विलय की योजनाएँ हैं,
नक्शे पर काटी जा रही हैं संकल्पनाएँ।
शब्दकोश से मिटाया जा रहा है
‘सार्वजनिक’ का अस्तित्व।
हे नीतिकारो, मत करो यह अपराध—
एक स्कूल का बंद होना
केवल दरवाज़ा बंद होना नहीं होता।
वह उस भरोसे का अवसान है,
जिसे एक ग़रीब माँ ने
अपने बच्चे के कंधे पर टांगा था।
उसे बंद मत करो—
नदी की तरह बहने दो उसे।
विकसित करो, पोषित करो,
जैसे एक किसान करता है खेत।
क्योंकि जब एक सरकारी स्कूल
फिर से खिल उठेगा,
तब केवल बच्चा पास नहीं होगा,
हम सब—एक समाज के रूप में—
थोड़ा और मनुष्य हो जाएँगे।