राजेन्द्र सिंह जादौन
वरिष्ट पत्रकार ,लेखक,
(राष्ट्रीय अध्यक्ष -खोजी पत्रकार यूनियन)
पत्रकार, लेखक, कवि एक ही प्रयोगशाला में जन्मे दो अलग अलग अविष्कार है । बस फ़र्ख इतना है कि ये किसी संस्थान की कक्षा, कार्यशाला,प्रयोगशाला या परखनली से इन्हें पैदा किया गया है ।
टीवी के कथित न्यूज चैनल हों या मनोरंजन चैनल , इनमें कोई तथ्यात्मक अंतर नहीं है ये बालीवुड के ही या डी ग्रेड संस्करण हैं।इनमें काम करने वाले वो नायक/ नायिकाएं हैं जिन्हें सिनेमा में अवसर नहीं मिला तो मजबूरी में टीवी पर उसी से मिलता जुलता काम कर रहे हैं। यहां भी ग्लैमर, पैसा, भयादोहन के भरपूर अवसर मौजूद हैं।कैमरा के सामने तो कलाकारी ही होगी। जिस दिन कैमरा ने कलम को खारिज किया, उसी दिन आदमी के दिमाग का कैमरा बंद हो जायेगा, जो पढ़े-लिखे जाने वाले शब्दों से दृश्य निर्माण करता था। अभी संक्रमण काल चल रहा है। जब तक स्व.विद्यानिवास मिश्र,स्व. प्रभाष जोशी, धर्मवीर भारती, मनोहर श्याम जोशी, रघुवीर सहाय, जवाहर लाल कौल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कमलेश्वर को पढ़ने वाली पीढ़ी जिंदा है तभी तक ऐसे सवाल पूछे जाएंगे। 20–25 साल बाद जब यह पीढ़ी नहीं होगी तो यह सवाल भी नहीं पूछा जाएगा, क्योंकि तब सारे के सारे कलाकार एक जैसे हो जाएंगे।
निष्पक्ष, साहसी,ईमानदारी का स्लोगन ही बाकी पत्रकार तो उन्हें कह नहीं सकते, हाँ चमचागीरी, तलवे चाटने, विरोध करने में उनका कोई सानी नहीं। जहां तक निष्पक्षता की बात है, तो खुद की बेइज्जती करवाने में वे बिलकुल निष्पक्ष हैं, सभी से करवा लेते हैं चाहे वो पूर्व राष्ट्रपति हों, चाहे वर्तमान प्रधानमंत्री हों चाहे देश के बड़े उद्योगपति हों चाहे स्वामी जी जैसे निर्भीक व्यक्ति हों चाहे आम जनता हो, लेकिन कमाल की बात ये कि पट्ठा सुधारने का नाम तब भी नहीं लेता। वो क्या है ना कि कुत्ते की दुम को चाहे 20 साल पाइप में रखो लेकिन सीधी तब भी नहीं होती …?
ज्यादातर पत्रकार निष्पक्ष नहीं है वह किसी ना किसी राजनीतिक दल से प्रेरित होकर कार्य करते हैं और उनसे कुछ नीचे दर्जे के पत्रकार बड़े पैसे वालों को, रसूखदारों को या ऊंचे ओहदेदारों को, उनकी कमियां हाथ लगने पर ब्लैकमेल भी करते हैं ।
पत्रकारिता आजकल एक व्यवसायिक पेशा बन गया है, और ये सही भी है, लोगों को परिवार पालने से लेकर सुविधा संपन्न जीवन जीने के लिए पैसे की जरूरत होती है, जब हर प्रोफेशन के लोग पैसे कमा रहे हैं तो पत्रकार कब तक कुर्ता पायजामा पहन कर थैला लटका के घूमेगा, वो निष्पक्ष होगा भी तो हम तो धर्म और जाति के नाम पर वोट देंगे, फ्री की चीजों के लिए वोट देंगे, हमको क्या फर्क पड़ता है कि कोई थैला लटकाए फटी चप्पल पहने हमे जागृत कर रहा है, आजकल जो भी सही बोलता है या तो जूते खाता है या गालियां, या जेल जाता है या फिर नौकरी से, वो महामानव नहीं है, जब हम खुद निष्पक्ष नहीं हैं तो आज के समय में किसी से भी निष्पक्ष होने की उम्मीद करना खुद को धोखा देना है, इसलिए पत्रकारों से ना उम्मीद लगाएं ना उन पर दोष, उन्होंने समाज के लिए सत्तर सालों में बहुत किया है, अब जिम्मेदारी हमारी है कि हम भी ब्रहम्म के जाल से मुक्त हों, हमारे पास पहले की तुलना में सूचना पाने के बहुत ज्यादा साधन हैं सोचना हमे है क्या सही है क्या गलत, पत्रकार भी इन्सान है, बिक भी सकता है,झुक भी सकता है, मर भी सकता है …?