‘उत्तराखंड में विराजमान हैं शिव की जटाओं से प्रगट होनेवाली देवी भद्रकाली’। 

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रमाकान्त पन्त।

 

‘उत्तराखंड में विराजमान हैं शिव की जटाओं से प्रगट होनेवाली देवी भद्रकाली’। 

देवी भद्रकाली सभी का मंगल करने वाली, वैभव प्रदान करने वाली, वर देने वालों को भी वरदान देने वाली, सर्व शत्रुविनाशिनी, सर्व सुखदायिनी, सर्व सौभाग्यदायिनी, लोक कल्याणकारिणी, सर्व स्वरुपा, कल्याणी माता हैं। श्री भद्रकाली माता की महिमा अपरम्पार है, आदि व अनादि से रहित भगवती भद्रकाली की कृपा से ही समस्त चराचर जगत की क्रियायें सम्पन्न होती है। जय को भी जयता प्रदान करने वाली माता भद्रकाली है।

दुर्गा सप्तशती में भी कहा गया है-

 

 ‘जयंती मंगला काली,भद्रकाली कपालिनी।’

 ‘दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते।।’

जनपद बागेश्वर की पावन भूमि पर कमस्यार घाटी में स्थित माता भद्रकाली का परम पावन दरबार सदियों से आस्था व भक्ति का अलौकिक संगम है। कहा जाता है कि माता भद्रकाली के इस दरबार में मांगी गई मनौती कभी भी व्यर्थ नहीं जाती है, जो भी श्रद्धा व भक्ति के साथ अपनी आराधना के पुष्प माँ के चरणों में अर्पित करता है, वह परम कल्याण का भागी बनता है। माता श्री महाकाली के अनन्त स्वरुपों के क्रम में माता भद्रकाली का भी बड़ा ही विराट वर्णन मिलता है। जगत जननी माँ जगदम्बा की अद्भुत लीला का स्वरुप अनेक रुपों में माता श्री भद्रकाली की महिमा को दर्शाता है।पुराणों के अनुसार माता भद्रकाली का अवतरण दैत्यों के संहार व भक्तों के कल्याण के लिए हुआ है।कहा जाता है,कि जब रक्तबीज नामक महादैत्य के आतंक से यह वंसुधरा त्राहिमाम कर उठी थी, तब उस राक्षस के विनाश हेतु माँ जगदम्बा ने भद्रकाली का रुप धारण किया तथा महापराक्रमी अतुलित बलशाली दैत्य का संहार किया। रक्त बीज को यह वरदान प्राप्त था कि युद्ध के समय उसके शरीर से गिरने वाली रक्त की बूंदों से उसी के समान महाबलशाली दैत्य उत्पन्न होगें। जगदम्बा माता ने भद्रकाली का विराट रुप धारण करके उसके रक्त की बूंदों का पान करके उसका संहार किया।

धौलीनाग के प्रसंग में भी माता भद्रकाली का बड़ा ही निराला वर्णन मिलता है। उल्लेखनीय है कि धौलीनाग अर्थात् धवल नाग का मंदिर बागेश्वर जनपद के विजयपुर नामक स्थान से कुछ ही दूरी पर पहाड़ की रमणीक छटाओं के मध्य भद्र काली पर्वत की परिधि का ही एक हिस्सा है। हिमालयी नागों में धवल नाग यानी धौली नाग का पूजन मनुष्य के जीवन को ऐश्वर्यता प्रदान करता है, महर्षि व्यास जी ने स्कंद पुराण के मानस खण्ड के 83 वें अध्याय में भद्रकाली के प्रिय इस नाग देवता की महिमा का सुन्दर वर्णन करते हुए लिखा है।

‘धवल नाग नागेश नागकन्या निषेवितम्। प्रसादा तस्य सम्पूज्य विभवं प्राप्नुयात्ररः।।’ (18/19 मानस खण्ड 83) 

नाग पर्वत पर विराजमान भद्रकाली भक्त नागों के अनेक कुलों का पुराणों में बड़े ही विस्तार के साथ वर्णन आता है। इस गोपनीय रहस्य को उद्घाटित करते हुए धवन नाग व अन्य अनेक नागों की महिमा के साथ माँ भद्र काली का वर्णन आया है। इस विषय में विस्तार पूर्वक उल्लेख करते हुए व्यास जी ने कहा है, जो प्राणी धवल नाग व नाग पर्वत पर विराजमान अन्य नागों का पूजन कर माँ भद्रकाली की भक्ति करता है,उस पर नाग देवता कृपालु होकर अतुल ऐश्वर्य प्रदान करते है। स्कन्द पुराण के मानस खण्ड के 79 वें अध्याय में वर्णन आता है कि वेद व्यास जी के साथ आध्यात्मिक चर्चा में देवयोग से लोक कल्याण के लिए ऋषियों के मन में नागों की निवास भूमि जानने की इच्छा जागृत हुई।अपनी इस व्याकुल इच्छा को जानने के लिए ऋषियों ने व्यास जी से कहा, महर्षेः नाग तो पातालवासी है, पृथ्वी पर उनका आगमन कैसे हुआ, तब व्यास जी ने ऋषियों को जानकारी देते हुए समझाया ऋषिवरो! सतयुग के आरम्भ में ब्रह्मा ने सारी पृथ्वी को अनेक खण्ड़ों में विभक्त कर दिया था। उन भूभागों में से नागों के लिए हिमालय में नाग पुर नामक स्थान नियत किया, जो आज भी नाग भूमि के नाम से जाना जाता है। नागों ने जिसे अपना नगर बनाया उसी नगरी के वासी श्री धौलीनाग जी सहित अन्य अनेक पूज्यनीय नाग है। माना जाता है कि सभी नाग तमाम क्षेत्रों में अदृश्य रहकर भगवान शिव की पूजा अर्चना करते हैं। अनन्त, वासुकी, शेष, पद्मनाभ, शखपाल, धृतराष्ट्र, तक्षक, कालिय कम्बलम सहित तमाम नागों के प्रति नाग पुर वासियों में अगाध श्रद्धा है। अलग अलग नामों से लोग इन्हें अपने इष्ट देव के रुप में भी पूजते हैं। धौलीनाग, बेड़ीनाग, फेडीनाग, हरिनाग, की भी विशेष रुप से यहां पूजा होती है। इन नागों में श्री मूलनारायण जी को नाग प्रमुख की पदवी प्राप्त है। ऐसा वर्णन आता है कि कभी आस्तिक ऋषि की अगुवाई में अनेक ऋषियों ने नागों के साथ मिलकर इस क्षेत्र में माँ भद्रकाली के दर्शन की अभिलाषा से विराट यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ को सफल बनाने में फेनिल नामक नाग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । बेरीनाग क्षेत्र में बहने वाली भद्रावती नदी का उद्गम इन्हीं के परामर्श पर ऋषियों ने अपने तपोबल से किया। भद्रावती तट पर स्थित गोपीश्वर महादेव नागों के परम आराध्य है, इनकी स्तुति पापों का शमन कर मनुष्य को अभयत्व प्रदान करती है। इतना ही नहीं गोपेश्वर भूभाग में पहुंचने पर वहां पहुंचने वाले के पूर्वजों के सभी पापों का हरण हो जाता है। सूर्योदय होने पर हिम के पिघलने की तरह यहां पहुंचने पर सोने की चोरी करने वाला, अगम्या स्त्री से गमन करने वाला तथा पूर्व में पितरों द्वारा किए गये पापों का भी विलय हो जाता है । कहा तो यहां तक गया है कि नागों के आश्रयदाता गोपीश्वर का पूजन करने पर सारी पृथ्वी की इक्कीस बार परिक्रमा करने का फल प्राप्त होता है।

‘त्रिः सप्त कृत्वा सकला धरित्री प्रत्रम्य यद्याति महीतले वै ततत्र गोपीश्वर पूजनेन सम्पूज्य जाती कुसुमैं सुशोमनैः’ (मानसखण्ड अ0 80/श्लोक 14) 

कहा जाता है, इस मंदिर की पूजा खासतौर पर नाग कन्यायें करती है। कुमाऊं का प्रसिद्व नाग मंदिर क्षेत्र सनिउडियार भी नाग कन्याओं के ही तपोबल से प्रकाश में आया। शाण्डिल ऋषि के प्रसंग में श्री मूल नारायण की कन्या ने अपनी सखियों के साथ मिलकर इस स्थान की खोज की इस विषय पर पुराणों में विस्तार के साथ कथा आती है। नाग कन्याओं को गोपियों के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है, इन्हीं की भक्ति से प्रसन्न होकर शिवजी गोपेश्वर के रुप में यहां स्थित हुए और नागों के आराध्य बने। इस भाग को गोपीवन भी कहा जाता है। भद्रपुर में ही कालिय नाग के पुत्र भद्रनाग का वास है।भद्रकाली इनकी ईष्ट है, भद्रापर्वत के दक्षिण की ओर से इनके पिता कालीय नाग माता कालिका देवी का पूजन करते है।

 ‘ततस्तु पूर्व भागे वै भद्राया दक्षिणे तथा काली सम्पूज्यते विप्राः कालीयने महात्मना।।’ (मानखण्ड अ0 81/श्लोक 11) 

भद्रा के मूल में श्री चटक नाग, श्री श्वेतक नाग का भी पूजन स्थानीनिवासियों द्वारा किया जाता है। नाग प्रमुख मूल नारायण जी की भी अलौकिक विष्णु भक्ति का प्रताप इन्हीं क्षेत्रो से जुड़ा हुआ है। सर्वपापहारी त्रिपुर नाग व फेनिल नाग के ज्येष्ठ पुत्र सुचूड़ नाग का वर्णन भी पुराणों में आता है। कुल मिलाकर नाग पर्वतों में विराजमान नाग मन्दिर सदियों से अटूट आस्था का केन्द्र है, श्रद्धा व भक्ति के संगम में धौली नाग सहित सभी नाग देवताओं का महात्म्य अतुलनीय है। उल्लेखनीय है कि यहां पर माँ भद्रकाली पूर्ण रूप से वैष्णवस्वरूप में पूज्यनीय हैं। माँ भद्रकाली को ब्रह्मचारिणी के नाम से भी जाना जाता है। वैष्णो देवी मन्दिर के अलावा भारत भूमि में यही एक अद्भुत स्थान है, जहां माता भद्रकाली की महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती तीनों रुपों में पूजा होती है। इन स्वरुपों में पूजन होने के कारण इस स्थान का महत्व सनातन काल से पूज्यनीय रहा है।आदि जगत गुरु शंकराचार्य ने इस स्थान के दर्शन कर स्वयं को धन्य माना। माँ भद्रकाली की ऐतिहासिक गुफा अद्भुत व अलौकिक है,जो मन्दिर के नीचे है। गुफा के नीचे कल कल धुन में नृत्य करते हुए नदी बहती है। इसी गुफा के ऊपर माँ भद्रकाली विराजमान है। माना जाता है यहां पर मन्दिर का निर्माण संवत् 986 (ई.सन् 930 ) में एक महायोगी संत ने कराया व मन्दिर में पूजा का विधान नियत किया। देवी के इस दरबार में समय समय पर अनेक धार्मिक अनुष्ठान सम्पन होते रहते है। मन्दिर में पूजा के लिये चंद राजाओं के समय से आचार्य एवं पुजारियों की व्यवस्था की गई है। मन्दिर के आचार्य पद का दायित्व खन्तोली के पन्त लोगों का है और पुजारी का पद ग्राम भद्रकाली के जोशी लोगों को दिया गया है।

उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊँ मण्डल में बागेश्वर जनपद अंतर्गत बागेश्वर मुख्यालय से लगभग 30 किमी पूर्व में पहाड़ की सुरम्य मनमोहक वादियों के बीच में स्थित इस देवी के दरबार की एक विशेषता यह है कि प्रायः माँ जगदम्बा के मन्दिर एवं शक्ति स्थल पहाड़ की चोटी पर होते है लेकिन यह मंदिर चारों ओर रमणीक शिखरों से घिरी घाटी में स्थित है। इन शिखरों पर नाग देवताओं के मन्दिर विराजमान हैं। जो यहां आने वाले आगन्तुकों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित कर लेते है। यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता जगत माता की ओर से भक्त जनों के लिए अनुपम उपहार है। भद्रकाली मन्दिर से एक नदी भी निकलती है, जिसे भद्रा नदी कहते है। स्कन्द पुराण के 81वें अध्याय में इस नदी की महिमा के बारे में महर्षि व्यास जी ने कहा है कि

‘तत्र भद्रवती नामा कन्दरायां महेश्वरी।पूज्यते नागकन्याभिर्नागैश्रवान्यैस्तथैव च।।’ 

अर्थात भद्रा के उद्गम स्थल पर भद्रेश की पूजा करने से सिद्धि की प्राप्ति होती है। देव, गन्धर्व, सर्प, आदि भद्रेश का पूजन करते है, चटक, श्वेतक, काली आदि नाग यहां पर भद्रकाली की पूजा कर धन्य है।

इस भूभाग से होकर बहने वाली नदियों में सुभद्रा नदी की बड़ी महिमा है। कहा गया है कि सुभद्रा नदी में स्नान करके भद्रकाली का पूजन करने से परम गति की प्राप्ति होती है।

सुभद्रासरितस्तोये निमज्य मुनिसत्तमां:। 

 देंवी भद्रवतीं पूज्य नरो याति परां गतिम्।।

भद्रकाली के निकटतम तीर्थ स्थलों में क्षेत्रपाल के पूजन का भी अद्भुत महात्म्य है। भद्रकाली मन्दिर के नीचे गुफा के भीतर मनभावन आकृतियां हैं तथा बीच में एक शिवलिंग है।अनन्त रुपों में अपनी लीला का विस्तार करने वाली अनन्त स्वरुपा सर्वस्वरुपिणी मां भद्रकाली की उत्पत्ति की एक गाथा दक्ष प्रजापति के यज्ञ से भी जुड़ी हुई है। वीरभद्र और भद्रकाली की उत्पत्ति भगवान शिव की जटाओं से भी मानी जाती है। वीरभद्र और भद्रकाली के साथ शिव की जटाओं से जिन देवियों की उत्पत्ति हुई उनमें त्वरिता व वैष्णवी का भी जिक्र आता है। हिमालय की गोद में बसा उत्तराखण्ड़ वास्तव में प्रकृति की अमूल्य धरोहर है। यहां पहुंचने पर वास्तव में आत्मा दिव्य लोक का अनुभव करती है।भद्रकाली गांव में रचा-बसा प्राचीन भद्रकाली का प्रसिद्ध मंदिर माँ जगदम्बा का अपने भक्तों के लिए दिव्य उपहार है। वर्ष भर यहां श्रद्वालुओं का आगमन लगा रहता है, नवरात्रों में भक्तों की चहल कदमी बढ़ जाती है। मान्यता है कि अष्टमी को रात-भर मंदिर में अखंड दीपक जलाने से मनोकामना पूर्ण होती है। इस स्थान पर शक्ति का अवतरण कब व किस प्रकार हुआ इस विषय में कोई ठोस जानकारी नहीं है। यहां पर भगवती के चरणों की भी पूजा होती है। मंदिर के साथ एक दंत कथा त्रेता युग के नाग देव खैरीनाग से भी जुड़ी हुई है। गुफा के प्रवेश द्वार पर झरना यहां आने वाले श्रद्धालुओं को मन्त्र मुग्ध कर देता है। माँ बगलामुखी के भक्तजन इस दरबार में माँ पीताम्बरा की साधना भी करते है,बगलामुखी साधकों का मानना है कि माँ भद्रकाली नागों की ईष्ट व नाग माता है, और माँ बगलामुखी को भी नागेश्वरी ही कहा जाता है, दोनो में कोई भेद नहीं है। दोनों का स्वरूप अभेद है। शिव पुराण के अनुसार त्रैलोक्य वंदिता साक्षात् उल्का अर्थात् माता बगलामुखी को ही भद्रकाली की जननी कहा है। “त्रैलोक्यवन्दिता साक्षादुल्काकारा गणाम्बिका,,,,,,,,,,,,,,,,,,कौशिक्याश्चैव जननी भद्रकाल्यास्तथैव च।”

यही कारण है कि इस भूमि पर प्रसिद्व संत माँ बगलामुखी के साधक श्री ननतीन महाराज जी ने घोर साधना की उनके तमाम भक्तों का इस दरबार में आना जाना लगा रहता है। माँ बगलामुखी के साधक विजेन्द्र गुरु का कहना है कि भगवती भद्रकाली ही साक्षात् माई पीताम्बरा अर्थात् माँ बगलामुखी है,सर्वस्वरुपा माँ का यह दरबार महामंगल को प्रदान करने वाला है। पभ्या गांव जो कि बेरीनाग के समीप स्थित है,इस गांव के महायोगी स्व०प्रयाग दत्त पन्त ने माँ भद्रकाली दरबार में वर्षों तक अखण्ड़ तपस्या की। उनकी भक्ति व साधना के किस्से आज भी बड़े ही सम्मान के साथ लोगों की जुबा पर रहते है,ब्रह्मलीन संत फलाहारी बाबा पर भी माँ भद्रकाली की असीम कृपा थी। दुर्गा सप्तशती के अध्याय11में माँ भद्रकाली की स्तुति करते हुए कहा गया है। ‘ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्।।त्रिशूल पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोअस्तुते’।।

अर्थात हे भद्रकाली ! तुम्हें नमस्कार है। सम्पूर्ण दैत्यों का नाश करने वाला, ज्वालाओं से विकराल तथा अत्यन्त भयंकर तुम्हारा त्रिशूल सभी भयों से हम सबकी रक्षा करे। शिव पुराण में माँ भद्रकाली के प्रिय वीरभद्र से इस प्रकार विनती की गई है-

‘वीरभद्रो महातेजा हिमकुन्देन्दुसंनिभ:।भद्रकालीप्रियो नित्यं मातृणा चाभिरक्षिता।।’

माता भद्रकाली की शीघ्र प्रसन्नता के लिए उनकी पूजा में सोलह अक्षर का यह गोपनीय मन्त्र साधकों को समस्त भयों से मुक्ति प्रदान करता है,भद्रकाली के इस दरबार में ‘ॐहौं कालि महाकालि किलि किलि फट् स्वाहा’।

मन्त्र का जाप समस्त मनोरथों को पूर्ण करता है। धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष प्रदान करने वाला माँ भद्रकाली का यह क्षेत्र युगो युगो से पूज्यनीय रहा है। इसलिए माँ के प्रति भक्तों का भाव अव्यक्त है।

हस्ताभ्यां धारयन्ती ज्वलदनल शिखासनितभं पाश युग्मं।दन्ते जम्बू फलाभै: परिहरतु भयं पातु मां भद्रकाली।।

भद्र काली माता के इस दरबार तक पहुंचने के लिए हल्द्वानी से आगे अल्मोड़ा शेराघाट गणाई गंगोली होते हुए बास पटान से भी मार्ग है, कुल मिलाकर बागेश्वर जनपद में स्थित माता भद्रकाली का यह पावन स्थल तीर्थाटन की दृष्टि से अतुलनीय है। हे जयन्ती(सबको जीतने वाली),मंगला(मोक्ष देने वाली), काली(प्रलय करने वाली), भद्रकाली (भक्तों का कल्याण करने वाली), कपालिनी (प्रलय के समय मुण्ड धारण करने वाली),दुर्गा(कठिनाई से मिलने वाली)क्षमा(सबको अभय देने वाली) शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा स्वरुप वाली देवी! तुम्हें नमस्कार है। हे,भद्रकाली माता तुम्हारी सदा जय हो।जय माँ भद्रकाली।  (विभूति फीचर्स)

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