राकेश अचल।
बिखरने की राह पर विपक्षी गठबंधन।********************************
भारत में लोकतंत्र खतरे में हो या न हो लेकिन तमाम विपक्षी दल जरूर खतरे में नजर आ रहे हैं। अनेक क्षेत्रीय दल अब सत्तारूढ़ भाजपा से मोर्चा लेने के बजाय उसकी शरण में जाने के लिए लालायित दिखाई दे रहे हैं। भारत के दो दलीय लोकतंत्र के लिए एक तरह से ये ठीक भी है और नहीं भी, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है?
पिछले महीने महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा में पराजय के बाद इंडिया गठबंधन के अनेक सहयोगी दल दिल्ली विधानसभा के चुनाव के समय अपनी-अपनी ढपली बजाकर अपना-अपना राग सुनाने लगे हैं। दिल्ली में शुरुआत आम आदमी पार्टी ने की। आम आदमी पार्टी ने इंडिया गठबंधन से कांग्रेस को अलग करने की मांग की। आम आदमी पार्टी दिल्ली में कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ने को राजी नहीं थी। यह गठबंधन पहली बार बिखरता तब दिखा जब कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के खिलाफ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुत्र को उतारा। इस पर आम आदमी पार्टी बिदक गयी और उसने कांग्रेस को ही भाजपा की बी टीम कह दिया।
महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हार चुके एनसीपी के शरद पंवार गुट को भी अब भाजपा प्रिय लगने लगी है। महाराष्ट्र के दिग्गज शरद पंवार अब ये कहते नहीं थकते कि संघ जैसा कोई नही। संघ ने ही भाजपा को प्रचंड विजय दिलाई। भाजपा के हाथों खंडित हो चुके शिव सेना उद्धव ठाकरे गुट के प्रमुख उद्धव ठाकरे को भी अब अपना वजूद संकट में नजर आ रहा है, वे भी अब हिंदुत्व का राग अलापते दिखाई दे रहे हैं और वो दिन भी दूर नहीं है जब वे भाजपा के सहयोगी बन जाएँ, क्योंकि न अब पंवार को लड़ना आता है और न उद्धव ठाकरे को। ये केवल परास्त ही नहीं बल्कि हिम्मत हार चुके योद्धा बनकर रह गए हैं।
बंगाल की शेरनी कही जाने वाली ममता बनर्जी तो पहले से इंडिया गठबंधन की अगुवाई करने का मन बनाये बैठीं हैं, वे भाजपा से अब तक जूझती आयीं है लेकिन अब उन्हें भी कांग्रेस से भय लगने लगा है। ममता को पता है कि इंडिया गठबंधन में और कोई कांग्रेस की जगह नहीं ले सकता, लेकिन चूंकि वे पुरानी कांग्रेसी हैं, अभी भी उनके साथ कांग्रेस का पुछल्ला जुड़ा है इसलिए उन्हें लगता है कि शायद गठबंधन के दूसरे सहयोगी उनका नेतृत्व स्वीकार कर ले।
इंडिया गठबंधन के सबसे बड़े दलों में से एक समाजवादी पार्टी ने विधानसभा उप चुनावों में कांग्रेस से अलग रहकर चुनाव लड़ लिया है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भी समाजवादी दल सुप्रीमो अखिलेश की अपनी ढपली और अपना राग सुनाई दिया था। समाजवादी दल की महत्वाकांक्षा ममता बनर्जी जैसी नहीं है। अखिलेश उत्तर प्रदेश से बाहर नहीं निकलना चाहते। उन्हें इंडिया गठबंधन के नेतृत्व की ललक भी नहीं है क्योंकि वे जानते हैं कि उनका और उनके दल का कद कांग्रेस जैसा नहीं है। फिर भी उनके मन में भी भय है। वे भाजपा से मोर्चा तो लिए हुए हैं, लेकिन उनका आत्मविश्वास भी हिला हुआ है।
बिहार का राष्ट्रीय जनता दल कांग्रेस का अखंड सहयोगी रहा है, लेकिन बिहार विधानसभा चुनावों से ठीक पहले वहां भी असंतोष के सुर सुनाई दे रहे हैं। राजद के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव अब बूढ़े हो चुके है। उनके उत्तराधिकारी तेजस्वी यादव ठसक में हैं लेकिन वे कांग्रेस के खिलाफ बागी नहीं हुए है। उन्हें पता है कि वे बिहार को अकेले दम पर न जीत सकते हैं और न भाजपा को सत्ता में आने से रोक सकते हैं, इसलिए वे अभी कांग्रेस के खिलाफ मुखर नहीं हुए हैं, लेकिन दल के और अपने वजूद की फिक्र उन्हें भी खाये जा रही है।
जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों के बाद नेशनल कांफ्रेंस के नेता और मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के स्वर भी कांग्रेस को लेकर तल्ख हो गए है। वे भी कहने लगे हैं कि इंडिया गठबंधन का न कोई एजेंडा है और न कोई नेता। दरअसल अब्दुल्ला का काम निकल चुका है। अब वे भी भाजपा से पंगा लेने के बजाय हिकमत अमली से पांच साल मुख्यमंत्री बने रहना चाहते है। उन्हें पता है कि भाजपा से पंगा लेने से अब उनका कोई फायदा होने वाला नहीं है इसलिए कांग्रेस से छोड़-छुट्टी करने में उन्हें कोई संकोच होने वाला नहीं है।
अब बात आती है इंडिया गठबंधन के सबसे बड़े दल कांग्रेस की। कांग्रेस के साथ सबसे बड़ी ताकत उसकी अपनी विरासत है, विचारधारा है और संख्या बल भी है। कांग्रेस के सामने देश की राजनीति में पहचान का कोई संकट नहीं है । देश की राजनीति को कांग्रेस विहीन बनाने का भाजपा का अभियान पूरी तरह कामयाब नहीं हो सका है। पिछले दस साल में कांग्रेस की ताकत और स्वीकार्यता बढ़ी जरूर है कांग्रेस ने पिछले आम चुनाव से पहले देश में दो बड़ी जनसम्पर्क यात्राएं निकलकर अपनी स्वीकार्यता को प्रमाणित भी किया है।
कांग्रेस पर एक परिवार के नेतृत्व का गंभीर और वास्तविक आरोप जरूर लगता है लेकिन भाजपा के खिलाफ केवल कांग्रेस ही है जो मैदान में खड़ी है। कांग्रेस आम आदमी पार्टी की तरह भाजपा की बी टीम नहीं बनी। कांग्रेस ने ईडी और सीबीआई के सामने भी हथियार नहीं डाले। कांग्रेस ने बड़े पैमाने पर कांग्रेसियों के भाजपा में शामिल होने के बाद भी हिम्मत नहीं हारी। कांग्रेस ही है जो अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सत्तारूढ़ भाजपा और प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को कटघरे में खड़ा करती रही है ।
कुल जमा बात ये है कि इंडिया गठबंधन बिखरता है तो देश की तमाम क्षेत्रीय पार्टियों का वजूद खतरे में पड़ जायेगा, लेकिन कांग्रेस का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। कांग्रेस का जितना नुकसान होना था वो पिछले 10 साल में हो चुका है। अब कांग्रेस खुद को सुरक्षित मान रही है, अब ये कोई माने तो ठीक और न माने तो ठीक। दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद देश के सभी गैर भाजपा दलों को पता चल जाएगा कि इंडिया गठबंधन देश की जरूरत है या नहीं? (विनायक फीचर्स)