ऋतु गुप्ता, पुराना बाजार, खुर्जा, बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश
सच कहूं पापा
सच कहूं पापा मैं शायद कुछ भी ना कर पाती ।
जो खुद से तुम्हारा संघर्ष ना देख पाती।
वह दो पहियों पर तेरा दिन रात बोझा ढोना,
करना सबके मन की अपने अरमानों को खोना।
वह भोलेपन पर तेरे लोगों के उलाहने,
यदि आंखों की नमी तेरी मैं ना पढ़ पाती,
सच कहूं पापा मैं शायद कुछ ना कर पाती
वो बरसों तलक तेरा दो शर्ट ही पहनना,
एक का जब धुलना दूजी बदलना,
वो मेरी यूनिफॉर्म के लिए पैसे जुटाना,
वो साबुन के झाग से शेविंग का करना।
वह जूते में तेरे यदि सुराख मै ना देख पाती,
सच कहूं पापा मैं शायद कुछ ना कर पाती।
वह जमाने का तेरे भोलेपन का फायदा उठाना,सारे हक छीनकर उनका ऐश उड़ाना,
वो सारे छल कपट जो संग हुए तेरे,वो मन ही मन तेरा कसमसाना,
मजबूरी को अपने ही दिल में छिपाना,
जो मैं उन्हें ना महसूस कर पाती,
सच कहूं पापा मैं शायद कुछ ना कर पाती।
मैं तो रही तेरी लाडली सी गुड़िया,
तेरे ही आंगन की छोटी सी चिड़िया,
कहां मुझे पता था कि लेना है डिग्रियां,
यदि आंखों से तेरे सपने ना देख पाती,
सच कहूं पापा मैं शायद कुछ ना कर पाती।
वह नाते रिश्तेदारों की शादी में, करोड़ों का खर्च होना,
आकर कहीं से तेरा उदास होना,
जो खाली जेबों को तेरी मैं ना देख पाती,
उसे पॉकेट की मजबूरी मै ना पढ़ पाती,
सच कहूं पापा मैं शायद कुछ ना कर पाती।
वह बरसों तलाक तेरी,इच्छाओं का मरना,
किलोमीटर का सफर दो पहियों पर करना,
हम सभी के लिए जीना,हम सभी के लिए हंसना,
जो करवटें बदलते तेरी रातें मैं ना देख पाती,
सच कहूं पापा मैं शायद कुछ ना कर पाती।
वह तेरी ईमानदारी, तेरी निश्छलता,
इस चालक दुनिया का तुझको पग पग ठगना,
वो बेईमानी के चार पैसे से भला,एक ईमानदारी का रुपया,
यदि बेटी ना होती तुम्हारी, तो ये जीवन का पाठ कैसे पढ़ पाती,
सच कहूं पापा मैं शायद कुछ ना कर पाती।