डॉ0 हरि नाथ मिश्र, अयोध्या (उ0प्र0)
मधुरालय
सुरभित आसव मधुरालय का
ढुरे पवन हो मस्त फागुनी,
ऋतु ने ली अँगड़ाई है।
एक घूँट बस दे दे साक़ी-
आसव की सुधि आई है।।
भरा हृदय है कड़ुवापन से,
नहीं रीति अच्छी लगती ।
सोच-कर्म में अंतर लगता-
उभय बीच अब खाई है।।
अमृत सम मधुरालय-आसव,
जिसको चख जग जीता है।
व्यथित-विकल तन-मन की हरता-
आसव द्रव अकुलाई है ।।
मधुरालय को तन यदि मानो,
साकी प्राण-वायु इसकी।
बिना प्राण के तन है मरु-थल-
साकी, पर, भरपाई है ।।
सागर-साकी का है रिश्ता,
प्रेमी-प्रेयसि के जैसा ।
दोनों मिल बहलाते मन को-
जब-जब रहे जुदाई है।।
मधुरालय मन-शुद्धि-केंद्र है,
साक़ी बना पुरोहित है।
धुले हृदय की कालिख सारी-
हाला सद्य नहाई है ।।
मानो इसको शुद्ध मंत्र सम,
इससे सुख का द्वार खुले।
अब विलम्ब मत करना भाई-
सुर-शुचिता यह पाई है।।