डॉ0 हरि नाथ मिश्र, अयोध्या (उ0प्र0)
गुनगुनी धूप
धूप अब गुनगुनी मन को भाने लगी,
ऋतु शरद अपना जलवा दिखाने लगी।
बैठे-बैठे अकेले नरम धूप में-
मीठी यादें सजन की सताने लगी।।
रौशनी सूर्य की अति सुहावन लगे,
चंद्र की चंद्रिका मन को भावन लगे।
खेत में बिखरी हरियालियाँ मखमली-
ले प्रकृति सुंदरी भी लुभाने लगी।।
मीठी यादें सजन की सताने लगी।।
सरिता शोभित लिए मोहिनी नीलिमा,
करती नर्तन दिखे ले रुचिर भंगिमा।
इस प्यारी सी भोली अदाओं को ले-
वो लहरों के सँग मन बहाने लगी।।
मीठी यादें सजन की सताने लगी।।
कितना लगता सुखद बैठना धूप में,
देखना भी प्रकृति को विविध रूप में।
पंख फैले परिंदों के कलरव मधुर-
सुन स्वयं गीत कुदरत भी गाने लगी।।
मीठी यादें सजन की सताने लगी।।
चाहतों का समुंदर भी उमड़ा दिखे,
मन ख्यालों के दर्पण में तुमको लखे।
लाख कोशिश किया कि मैं भूलूँ मगर-
गुनगुनी धूप सूरत झलकाने लगी।।
मिठी यादें सजन की सताने लगी।