वक्त की लाठी।

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ब्यूरो छत्तीसगढ़ः सुनील चिंचोलकर।

रश्मि रामेश्वर गुप्ता, बिलासपुर छत्तीसगढ़ 

                  वक्त की लाठी।

कभी जब अतीत की यादें आती तो मिनी को ये सोचकर बहुत तकलीफ होती थी कि दादा जी, दादी जी, पापा जी , चाचा जी सब मिनी को छोड़ कर कहाँ चले गए। अगर इनमें से कोई एक भी रहते तो आज माँ की ऐसी हालत नही हुई होती।

मनुष्य कितना असहाय होता है बुढ़ापे में। सारी जिंदगी कैसे बीत जाती है पता नही चलता क्योंकि शरीर में तब ताकत होती है। बुढापा हर प्रकार से व्यक्ति को आश्रित कर देता है, दूसरों के अधीन कर देता है। माँ हमेशा कहा करती थी- ” पराधीन सपनेहुँ सुख नाही।” बेटी जब मायके में रहती है तब माता-पिता के आधीन रहती है। जब ससुराल जाती है तब पति और सास-ससुर के अधीन रहती है पर जब पति का साथ न हो तब तो एक स्त्री का जीवन क्या होता है ये देख के रूह कांप जा रही थी।

हर जीव अपनी संतान से कितना मोह रखता है। हमेशा यही दुआ करता है कि जहाँ भी रहे सुखी रहे। मुझे भले ही न दे पर स्वयं अपना जीवन सुख से जिये। माता-पिता भी जाने किस मिट्टी के बने होते हैं। इतने दिन बिस्तर में रहने के बाद भी माँ कहती थी – “मिनी! तुम दोनो मेरी दो आंखें हो। भगवान तुम दोनो को सदा सुखी रखे।”

अपने दामाद को देखकर कहती थी- “किसी जन्म में आप मेरे बेटे रहे होंगे बेटा! इसलिए इस जन्म में मेरी इतनी सेवा आपको करनी पड़ रही है।”

बिस्तर में रहने के बाद भी मां हमेशा खाने से पहले पूछती- “दामाद जी खाना खा लिए कि नही?”

जब तक दामाद जी नही खा लेते माँ कभी खाना नही खाती थी। बच्चे भी हमेशा नानी के आस-पास ही रहते। उनको भी अच्छी-अच्छी बातें सिखाया करती। बिस्तर में रहते हुए भी जब कोई त्योहार आता तो मिनी से कहती -“मिनी! मेरी पेटी में जो रुमाल है न वो मुझे ला के दे तो।” फिर उस रुमाल में बंधे कुछ पैसे निकालती और सबको देती। फिर भी संतोष नही होता तो मिनी से कहती – “मिनी! मेरे पास तो इतने ही हैं। क्या करूँ ” कह के फिर चुप हो जाती। मिनी कहती -“माँ! हमारे पास जो भी है सब आपका ही दिया हुआ है फिर क्यों ये सब करती हो? ”

माँ कहती- “क्या करू मैं , जब कोई त्योहार आता है न तो मन नही मानता बेटा!”

जब तक माँ बिस्तर पर थी घर में सभी जान-पहचान वाले बड़े-बुजुर्गों का आना-जाना लगा रहता था। सभी घर में आते, माँ के पास बैठते। मिनी को , सर को खूब आशीर्वाद देते। कुछ अपने अनुभव बाटते। कुछ सिखाते, कुछ समझाते, कुछ धीरज बंधाते, कुछ हौसला देते। अद्भुत दिन थे वो। माँ के रहने से जैसे घर सचमुच तीर्थ हो गया था। इस दौरान चंद ऐसे लोग भी आये जिन्हें मां की सुधरती हालत देखकर तकलीफ होने लगी। कुछ दूर-दराज़ के लोग फोन में भी मिनी को ताने मारने से नही चूके। मिनी ने सब कुछ बर्दाश्त किया सिर्फ इसलिए कि मां तो अब खुश है और क्या चाहिए जिसको जो सोचना है सोचे।

वास्तव में घर में बड़े बुजुर्गों का होना अत्यंत ही आवश्यक है। पता नही क्यों लोग स्वच्छंद होकर जीना चाहते है पर कुछ बंधन जीवन में होने अत्यंत ही आवश्यक है। बड़ो के साथ रहकर ही हम अपनी जिंदगी को बेहतर समझ सकते हैं।

उस समय घर में जो भी लोग मां से मिलने आते वो बड़े ही विचारवान, गंभीर और सहृदय लोग ही आते थे। मन को उनकी बातों से बड़ी तसल्ली मिलती थी।

घर में बच्चों का होना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी बड़ो का होना भी होता है पर किसको किसका साथ मिलता है और कौन किससे कितना सीखता है ये तो नसीब की बात होती है।

कोई भी शिक्षक एक ही कक्षा में सभी विद्यार्थियों को समान भाव से शिक्षा देता है परंतु कोई विद्यार्थी विशेष योग्यता अर्जित कर लेता है और कोई कुछ भी नही सीख पाता, बिल्कुल वैसे ही माता-पिता हर बच्चे का भविष्य संवारना चाहते हैं परंतु ये बच्चों पर ही निर्भर होता है कि वे अपने माता-पिता के प्रति कितनी श्रद्धा रखते हैं। इसमें किसी का कोई भी वश नही चलता परंतु दुर्भाग्य की बात ये है कि अगर बच्चे सही नही निकले तो दोषी माता-पिता को ठहराया जाता है । कितनी दुखद स्थिति है किसी भी माता -पिता के लिए जबकि ये सर्वविदित है कि एक ही माता-पिता के सभी संतान एक ही जैसे कभी नही होते फिर भी पता नही क्यों बच्चों की गलती की सजा माता-पिता को भुगतनी ही पड़ती है। ऐसा भी तो होता है जिसके माता-पिता बहुत अच्छे होते हैं उनकी संतान नालायक हो जाए और ऐसा भी होता है जिनके माता-पिता सही न हो उनकी संतान बहुत ही काबिल हो जाए इसलिए कभी भी किसी को दोषी नही ठहराया जाना चाहिए। मानवता तो यही कहती है पर लोग मानते कहाँ है।

आज भी बच्चों के गलत होने पर समाज में माता-पिता को ही प्रताड़ित किया जाता है और इस दुख को न सह पाने के कारण कितने माता-पिता अपनी जान गवां बैठे क्योकि न ही वे बच्चों से दूर रह पाते और न ही समाज से। कितनी दुखद स्थिति है ये। तमाम तरह की बातें तमाम परिस्थितियां ही व्यक्ति को सोचने और समझने पर विवश करती हैं पर उनको जो कुछ सोचने समझने को तैयार हो। जो सोचने समझने को बिल्कुल ही तैयार न हो उन्हें इन सब बातों से कोई फर्क नही पड़ता परंतु ऐसे लोगो को फिर वक्त ही समझाता है और लोगो का ही कहना है की वक्त की लाठी में आवाज़ नही होता । इसलिए क्यो न बड़ों के साथ रहकर पहले ही सोच और समझ लिया जाए। भलाई तो इसी में है।…………क्रमशः

 

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