डॉ0 हरि नाथ मिश्र, अयोध्या (उ0प्र0)
‘मधुरालय’
‘सुरभित आसव मधुरालय का’ 6
तन का थका व मन का विचलित,
जब चखता है आसव को।
परमानंद-सिंधु तर जाता-
बिना चुका उतराई है।।
हरित मना, उत्साहित होकर,
पुनि लग जाता कर्मों में।
प्रभु-प्रसाद निज कर्म समझता-
देता उन्हें बधाई है।।
नाथ-कृपा,हरिनाथ-कृपा को,
पाकर होता हर्षित वह।
कुल-समाज-परिजन की सेवा-
करता शुचि सेवकाई है।।
मिले जो अवसर अहो भाग्य!
जन-समाज की सेवा का।
हो जाती है सफल जिंदगी-
होती नेह लगाई है।।
साक़ी भी करता है सेवा,
निशि-वासर व शामों-सहर।
करे आत्मा तृप्त सभी की-
रखता भाव हिताई है।।
मधुरालय का प्याला छलके,
भरा हुआ मृदु हाला से।
मणि-मुक्ता सम कंठ सुशोभित-
छटा मनोहर छाई है।।
हर प्यासा मन चुम्बन चाहे,
ऐसी सुंदर बाला का।
छू कर अधरों से वह प्यासा-
करता परम ढिठाई है।।
जब करता अठखेली प्यासा,
प्याले की उस हाला से।
सकुचि-सकुचि उसकी चुस्की में-
हाला बहु शरमाई है।।
नाजुक हाला,प्यासा निर्मम,
दोनों का क्या मेल बना!
क़ुदरत का बस यही करिश्मा-
यही जगत-भरमाई है।।
निशा-दिवस का मेल यही है,
तम के संग उजाले का।
प्राणों के सँग जीवन जोड़ा-
करती मौत जुदाई है।।
पुनि,वियोग संयोग है बनता,
जीव जन्म जग लेता है।
यह सिलसिला बना है रहता-
पुनि-पुनि आ जग जाई है।।
प्रकृति-पुरुष मिल जगत सँवारें,
पंच तत्व दें आलंबन।
क्षिति-जल-पवन-गगन-अगन से-
रुचिकर सृष्टि रचाई है।।
प्राणों को तो पवन सजाए,
रचा ताप रवि-किरणों ने।
गगन-अगन-जल करें सुरक्षा-
पृथ्वी अन्न उगाई है।।
अन्न-फूल-फल पाकर दुनिया,
करती जीवन-यापन है।
बिना दिए कुछ ध्यान तथ्य पर-
मृत्यु मात्र सच्चाई है।।