डॉ0 हरि नाथ मिश्र, अयोध्या (उ0प्र0)
मधुरालय*श
सुरभित आसव मधुरालय का 13
यह आसव मधुरालय वाला,
हृद अति हर्षाने वाला।
इसकी पद्धति ने ही जग को-
जीवन-कला सिखाई है।।
मधुर मधुरिमा आसव वाली,
सबको राह दिखाती है।
विश्व-पटल के इस कोने से-
उस कोने तक छाई है।।
जब भी औषधि काम न करती,
नहीं रोग को दूर करे।
देकर शरण इसी आसव ने-
मुरली मधुर बजाई है।।
यमुन-पुलिन यह कृष्ण-बाँसुरी,
राधा-रुक्मिणि-लाज-हया।
कौरव-कंस-दुशासन-घालक-
लंक में आग लगाई है।।
गीता-ज्ञान,वेद-मंत्र यह,
गुरु पुराण-श्रुति-चिंतन है।
अति प्राचीन-रुचिर रस-धारा-
जीवन-तत्त्व-पढ़ाई है।।
सर्व धर्म-सम्मान-भावना,
सब जन का हितकारी यह।
रखे नहीं यह बैर किसी से-
प्रेम-भाव-नरमाई है।।
सकल विश्व,यह धरती,अंबर,
सर-सरिता जो सिंधु महान।
सब में आसव,सब आसव में-
आसव जग गुरुताई है।।
उद्धारक यह और सुधारक,
यह तो कष्ट-निवारक है।
सकल ज्ञान की कुंजी आसव-
कुंजी गंग नहाई है।।
समिधा-हवन-कुंड यह आसव,
पावक पाप-जलावन यह।
वायु, व्योम में सतत प्रवाहित-
हवा शुद्ध पुरुवाई है।।
सकल मंत्र अभिमंत्रित आसव,
आसव मंत्र-कोष अक्षुण्ण।
अमिय-बूँद यह झर-झर झरती-
दुनिया पी हर्षाई है।।
शुद्ध हृदय जो पूण्य आत्मा,
उन्हीं को आसव सदा मिले।
पापी-कपटी-कलुषित हृदयी-
की भ्रम-जाल फँसाई है।।
मधुर वचन मन शीतल करती,
करता यह सिद्धांत अमल।
हृदय-कालिमा,दूषित वाचा-
इसको रास न आई है।।
भोगी कर स्नान अमल नित,
इस आसव की सरिता में।
भोग-वासना मय माया से-
करता ध्रुव विलगाई है।।
आसव अमृत धरा-धाम का,
जीवन को पावन करता।
भले न मानव रहे जगत में-
रहती तासु बड़ाई है।।