भारत कुमार को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि: मनोज कुमार – एक युग, एक विचार, एक भावना।

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(लेखक – [प्रियंका सौरभ]

श्रेणी – विशेष श्रद्धांजलि / कला-संस्कृति विशेषांक

 

 

भारत कुमार को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि: मनोज कुमार – एक युग, एक विचार, एक भावना।

 

“है प्रीत जहाँ की रीत सदा मैं गीत वहाँ के गाता हूँ

भारत का रहने वाला हूँ भारत की बात सुनाता हूँ”

 

जब भी भारतभूमि से जुड़ी फिल्मों और कलाकारों की बात होती है, तो एक नाम स्वाभाविक रूप से मन में आता है – मनोज कुमार। यह नाम सिर्फ एक अभिनेता का नहीं, बल्कि एक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है। वह विचारधारा, जो देशभक्ति, मानवीयता, समाजिक चेतना और आत्मीयता को अपने कलेवर में समेटे हुए है। मनोज कुमार को ‘भारत कुमार’ की उपाधि यूँ ही नहीं मिली – यह उनके जीवन, उनके काम और उनके नज़रीये की स्वाभाविक परिणति थी।

4 अप्रैल की सुबह, जैसे ही यह दुःखद समाचार आया कि मनोज कुमार जी अब हमारे बीच नहीं रहे, देशभर में एक भावनात्मक शून्यता फैल गई। ऐसा लगने लगा जैसे भारतीय सिनेमा का एक पूरा युग अपने परदे से विदा ले चुका है। उनके निधन ने फिल्म प्रेमियों, कला साधकों और आम जनमानस को झकझोर दिया।

 

प्रारंभिक जीवन – एक साधारण बालक से भारत कुमार तक।

 

24 जुलाई 1937 को अविभाजित भारत के अब्बोटाबाद (अब पाकिस्तान में) में जन्मे हरिकृष्ण गिरि गोस्वामी, विभाजन के समय अपने परिवार के साथ दिल्ली आ बसे। यहीं से उनके जीवन की कठिन यात्रा शुरू हुई, जिसने आगे चलकर उन्हें ‘मनोज कुमार’ के रूप में नई पहचान दी। दादी के कहने पर उन्होंने दिलीप कुमार से प्रेरणा लेकर अपना नाम ‘मनोज’ रखा।

 

उनके भीतर राष्ट्रप्रेम का बीज बचपन से ही रोपित हो चुका था। विभाजन की त्रासदी ने उनके भीतर देश और समाज के प्रति गहरी संवेदना पैदा की। यही कारण था कि जब उन्हें सिनेमा में अवसर मिला, उन्होंने उसका उपयोग मात्र प्रसिद्धि के लिए नहीं, बल्कि जन-जागरण के माध्यम के रूप में किया।

 

सिनेमा में पदार्पण और पहचान

 

मनोज कुमार ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत 1957 में फिल्म ‘फैशन’ से की। शुरुआती वर्षों में उन्होंने कई रोमांटिक और पारिवारिक फिल्मों में काम किया – ‘हरियाली और रास्ता’, ‘वो कौन थी’, ‘हिमालय की गोद में’ जैसी फिल्में उन्हें लोकप्रिय बनाती रहीं।

 

परंतु 1965 में आई फिल्म ‘शहीद’ ने उन्हें एक नई पहचान दी। यह भगत सिंह के जीवन पर आधारित फिल्म थी, और मनोज कुमार ने इसमें जिस समर्पण से भूमिका निभाई, वह लोगों के दिलों में बस गई। इसके बाद उन्होंने ‘राष्ट्रप्रेम’ को अपनी फिल्मों का मुख्य तत्व बना लिया।

 

‘उपकार’ और भारत कुमार की स्थापना

 

1967 में रिलीज़ हुई ‘उपकार’ उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट बनी। यह फिल्म तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के ‘जय जवान, जय किसान’ के नारे से प्रेरित थी। मनोज कुमार ने इसमें न केवल अभिनय किया, बल्कि निर्देशन और लेखन भी किया। फिल्म के माध्यम से उन्होंने किसान और सैनिक के जीवन को जिस आत्मीयता और यथार्थ के साथ प्रस्तुत किया, वह सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर बन गया।

 

“मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती”

यह गीत आज भी हर भारतीय के हृदय में देशभक्ति की भावना को जीवंत कर देता है। यही वह फिल्म थी जिसने मनोज कुमार को ‘भारत कुमार’ बना दिया।

 

सिनेमा और सामाजिक सरोकार

 

मनोज कुमार का सिनेमा मात्र मनोरंजन नहीं था। उनकी फिल्मों में सामाजिक सन्देश, राष्ट्रप्रेम और मानवीय करुणा का अद्वितीय संगम था।

 

‘रोटी कपड़ा और मकान’ (1974) ने बेरोजगारी, गरीबी और व्यवस्था के प्रति निराशा को संवेदनशील तरीके से दर्शाया। यह फिल्म आज भी प्रासंगिक मानी जाती है।

 

‘पूरब और पश्चिम’ (1970) ने भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य प्रभावों के टकराव को जिस संतुलन के साथ प्रस्तुत किया, वह आज के दौर में भी उतना ही समीचीन लगता है।

 

‘क्रांति’ (1981) में उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम की भावना को एक भव्य और भावनात्मक रूप में जीवंत किया। यह फिल्म भी ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण मानी जाती है।

 

गीतों में संवेदना और विचार

 

मनोज कुमार की फिल्मों के गीत महज़ मनोरंजन का साधन नहीं थे, वे विचारों की अभिव्यक्ति थे। जैसे:

“बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ, आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ” – मानवता का उद्घोष।

“कसमें वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या” – प्रेम और पीड़ा की गहराई।

 

इन गीतों ने न केवल फिल्म को हिट बनाया, बल्कि पीढ़ियों तक के दिलों को छुआ। मनोज कुमार का सिनेमा इसलिए अमर है क्योंकि उसमें शब्दों से अधिक भावों का स्थान था।

 

व्यक्तित्व – पर्दे से परे

 

जहाँ एक ओर वे राष्ट्रभक्त नायक थे, वहीं दूसरी ओर वास्तविक जीवन में भी वे उतने ही सरल, सहज और विनम्र थे। उद्योग में उनके साथ काम करने वाले सभी लोग उनके आत्मीय व्यवहार के साक्षी रहे हैं।

वे लोकप्रियता के शिखर पर होते हुए भी दिखावटी जीवन से दूर रहे। पुरस्कारों के प्रति उनका दृष्टिकोण भी विनम्र था – उन्होंने कई बार सरकारी सम्मान लेने से भी परहेज़ किया। यह उनके आदर्शवादी दृष्टिकोण और निष्ठा को दर्शाता है।

 

सम्मान और पुरस्कार

 

   मनोज कुमार को 1992 में पद्म श्री से सम्मानित किया           गया।

           उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार (2016) से भी नवाजा गया, जो भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान है।

 

इसके अलावा उन्हें कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी प्राप्त हुए

 

अंतिम विदाई – एक युग का अंत

 

4 अप्रैल 2025 की सुबह, जब यह समाचार आया कि मनोज कुमार नहीं रहे, तो देश भर से शोक संदेश आने लगे। राजनेता, अभिनेता, लेखक, पत्रकार – सभी ने उन्हें श्रद्धांजलि दी।

 

उनके निधन के साथ भारतीय सिनेमा का वह अध्याय समाप्त हुआ, जिसमें सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज का दर्पण था।

 

आज जब देश ‘न्यू इंडिया’ की बात करता है, तब भी मनोज कुमार का सिनेमा ‘रियल इंडिया’ की याद दिलाता है – वह भारत जो गाँव में बसता है, जो मिट्टी से जुड़ा है, जो मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि मानता है।

 

निष्कर्ष – स्मृति शेष नहीं, प्रेरणा शेष

 

मनोज कुमार अब शारीरिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी आत्मा उनके गीतों, फिल्मों और विचारों में जीवित है। वे एक कलाकार से कहीं बढ़कर, एक विचारधारा थे। उनके जैसा संयोजन – अभिनेता, लेखक, निर्देशक और राष्ट्रप्रेमी – अब विरल होता जा रहा है।

 

हम उन्हें मन, वचन और कर्म से नमन करते हैं।

उनकी जीवन-यात्रा हम सबके लिए प्रेरणा का स्रोत रहेगी।

भारत कुमार अमर रहें।

 

 

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