पानी,सड़क और स्वास्थ सेवा को तरसता वीडी का बुन्देलखंड मोहना का मालवा और भाजपा का निमाड़

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प्रेरणा गौताम, मध्यप्रदेश,

“नया अध्याय” (ब्यूरो चीफ)

पानी,सड़क और स्वास्थ सेवा को तरसता वीडी का बुन्देलखंड मोहना का मालवा और भाजपा का निमाड़।

जहां जीवनदायनी नर्मदा,बेतवा ,चम्बल ,क्षिप्रा को मिलाकर लगभग 207 छोटी बड़ी नदिया है जिसमे नर्मदा भारत की पांचवी सबसे बड़ी नदी है। अमरकंटक से निकल कर आदिवासियों क्षेत्रों से होती हुई ये नदी गुजरात की तरफ बड जाती है इस नदी पर करीब 4 बड़े बांध बने है इसी के साथ मध्यप्रदेश में तक़रीबन छोटे बड़े सभी बांध मिलाकर 70 के लगभग है। साथ ही गांव गांव पानी पहुंचाने नल जल योजना जैसी कई छोटी योजाए है साथ ही इतना सब होनेके बाद भी मध्यप्रदेश प्यासा है और पानी पानी को तरस रहा है। जिस मालवा के उज्जैन से मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री आते है वहाँ क्षिप्रा ,पारवती ,कालीसिंध जैसी नदिया जीवन प्रदान करती है और इसी मालवा के बारे में एक कहावत है की डग डग रोटी पग पग नीर लेकिन मुख्यमंत्री का मालवा मिलो दूर से पानी भर कर लाने को मजबूर है और विडी शर्मा का बुन्देलखं तो पानी को रोता दीखता है और आंसुओ से अपनी प्यास बुझा रहा है तो वही भाजपा के आदिवासी इलाके और निमाड़ का घड़ा आज भी पानी को तरस रहा है। पानी के साथ आज भी स्वास्थ सेवाओं के नाम पर कई गांव ऐसे है जहा बीमार होने पर खटिया पर लाद कर अस्पताल ले जाना पड़ता है,लेकिन ये बड़ी दिक्कत नहीं है. दिक्क्त है पथरीले रास्ते से लंबी चढ़ाई के बाद इतना गंदा पानी मिले कि हाथ धोने का भी मन ना करे, तब पता चलता है दिक्कत क्या है.?

“सरकार या मुखिया हो, या विधायक हो, या जिला परिषद हो या कि पंचायत समिति, हम लोगों को किसी से मतलब नहीं है. जिस आदमी को हम लोग बनाते है , वो हम लोगों को नहीं बना पा रहा है , तो हमें उनसे क्या मतलब? इसी पानी और विकास को लेकर मध्यप्रदेश के कई गावो में इलेक्शन में विरोध देखने को मिला और चुनाव का बहिष्कार भी हुआ चार चरणों के इस चुनाव में इसी का नतीजा रहा की वोट प्रतिशत कम हुआ ? कई गांव में लोग बहुत नाराज हैं. शासन, प्रशासन, स्थानीय प्रतिनिधि… सब लोगों से बेहद गुस्सा हैं वो. स्टोरी के दौरना शुरू में मुझ पर भी कई ग्रामीण नाराज हुए, मुझे ताना देने लगे क्योंकि उन्होंने मुझे “सरकारी आदमी” समझ लिया.?

गांव तक अब भी नहीं पहुंची सड़क ?

राजधानी भोपाल से करीब 60-70 किलोमीटर दूर जब आप गांवो का दौरा करे तो पक्की सड़क खत्म हो जाती है यही नहीं कई किलोमीटर जब आप आदिवासियों के जंगल में प्रवेश करते है तब जो रोड आपको यहां पहुंचाती है, उसे ठीक-ठीक कच्ची सड़क भी नहीं कहा जा सकता. कहीं खड़ी चढ़ाई, कहीं ढलान, बजरीली-पथरीली मिट्टी पर एक कामचलाऊ राह सी बनी है.? आप जेठ-बैसाख की तीखी धूप में हांफते-रुकते पैदल यहां पहुंच तो सकते हैं, लेकिन बरसात में इतनी सहूलियत भी नहीं होती होगी. गांव से बहुत पहले ही आपकी चारपहिया जवाब दे जाएगी. मोटरसाइकिल आ सकती है, लेकिन शर्त ये कि चलाने वाला इस इलाके में रचा-बसा हो. उसे भी बेहद सावधानी से धीरे-धीरे बाइक चलानी होगी, बिना किसी को पीछे बिठाए.?

ग्रामीण बताते हैं कि कई बार महिलाओ के साथ पानी लाते वक्त कुछ घटनाए भी हो जाती है पानी भरकर घर आते हुए खड़ी चढ़ाई पर उनका पांव फिसल कर गिर भी जाती है नजदीकी अस्पताल करीब 16 किलोमीटर दूर है, गांव को आने वाली सड़क का हाल आप पढ़ ही चुके हैं. कई बार तो पानी की प्यास बुझाते बुझाते कई महिलाओ की ज़िंदगी का दिया ही बुझ गया। आस्पताल ले जाने की कोशिश हुई, लेकिन वो नहीं बच पाईं?

पानी और सड़क का सपना

ग्रामीण बताते हैं कि बीमारों को खटिया पर ही ले जाया जाता है, लेकिन गांव के लोग पास में अस्पताल ना होने को अपनी सबसे बड़ी परेशानी नहीं मानते. उनकी चाहत निहायत बुनियादी है. पीने का पानी और ऐसी सड़क, जिस पर बरसात में भी आया-जाया जा सके, रात-बिरात जरूरत पड़ने पर गाड़ी आ सके.यहां ग्रामीणों के पानी की हर जरूरत का एक ही पता है. गांव के आखिरी घर से आधा किलोमीटर से कुछ ज्यादा ही दूरी पर एक छोटा सा कुंड या पहड़ो से बहते छोटे झरने जिनमे बून्द बून्द टपकता पानी है. इसी में लोग नहाते हैं, बरतन धोते हैं, कपड़े साफ करते हैं.? यह कोई बहती धार नहीं है कि साबुन, मिट्टी और बाकी गंदगी बहकर धुल जाए। ये एक स्रोत है, जिसमें ठहरा हुआ पानी है. पानी भी पर्याप्त गंदा है, प्यास से जान ना जा रही हो तो आप इसका पानी पीने की हिम्मत नहीं करेंगे. गांववाले इसी पानी पीते हैं.?

महिलाओं की ये मेहनत कहां दर्ज होती है?

गांव की लड़कियां और महिलाएं पानी भरने के लिए दिन में चार-पांच चक्कर लगाती हैं. ध्यान रखना जरूरी है कि गांव जाने वाला रास्ता सीधी चढ़ाई का है. धूप में वहां आते-जाते हुए मैं पसीने से नहा गई थी, जबकि मेरे सिर पर पानी से भरा कोई घड़ा भी नहीं था.जहां-जहां पानी की दिक्कत है, पानी के लिए कई किलोमीटर जाने की मजबूरी है, उन जगहों पर ज्यादातर लड़कियों-महिलाओं पर ही यह अतिरिक्त बोझ बढ़ता है. इस श्रम का क्या हिसाब है? यह मेहनत कहां दर्ज हो रही है ?

गांव में एक बूढ़ी अम्मा मिलीं, उन्हें अपना नाम नहीं पता, नजर बहुत कमजोर हो चुकी है। उन्होंने अपनी भाषा में जो कहा, उसका सार ये था कि जब से ब्याह कर इस गांव आई हैं, पानी के लिए यही जतन देख रही हैं। जब वो यह बता रही थीं, तब कुछ महिलाएं पास में खड़ी थीं. कुछ लड़कियां और बच्चियां भी थीं। मैं एक साथ तीन पीढ़ियों को देख रही थी, जिनके जीवन का एक लंबा समय पानी जुटाने में खर्च हो रहा है.?

महिलाएं बात करने से हिचक रही थीं. बहुत पूछने पर कहा कि पानी के लिए आने-जाने में बहुत थकान हो जाती है. यह बात बड़े सरल तरीके से लजाते-मुस्कुराते हुए कही गई.एक महिला उसी गंदे पानी से आंगन के छोर पर बरतन मांजती मिलीं. दोपहर का खाना निपट चुका था. उन्होंने जो कहा, उसका अनुमान आप सहज लगा सकते हैं. आप कल्पना कर सकते हैं कि उन्होंने क्या ख्वाहिश जताई होगी। पानी की उपलब्धता ना होने के नुकसान इतने ही नहीं हैं. लड़कियों की पढ़ाई पर भी असर पड़ रहा है. पहली से पांचवीं क्लास तक की पढ़ाई के लिए स्कूल पास में हैं. उससे आगे छठी से 10वीं तक के लिए स्कूल दूर गांव में है, जो करीब नौ किलोमीटर दूर है. ग्रामीणों ने बताया कि अधिकतर बच्चे वहां भी पैदल ही आते-जाते हैं.एक तो घर के काम, ऊपर से पैदल जाने की विवशता, ऐसे में लड़कियां रोज इतनी दूर स्कूल नहीं जा पाती हैं.?

“उम्मीद के नाम पर वोट देते हैं”?

ग्रामीणों के पास बताने को बहोत कुछ है वह अनायास ही सामने पठार की ढलान की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, “जून-जुलाई में बरसात होगी, तो वहां फसल लगाएंगे. बिना बरसात कुछ नहीं होता. पानी बरसेगा तो कुआ भी भरेगा. वरना तो जैसे पानी के बिना मछली तड़प कर मर जाती है, वैसे ही हम भी मर जाएंगे.”? ग्रामीण बताते हैं कि यहां ज्यादा पैदावार नहीं होती. एक फसल निकाल पाते हैं साल में. मुख्य फसलों में धान, बाजरा और मड़ुआ हैं. कमाई का एक और प्रमुख साधन मजदूरी है. कोई बड़े शहर कमाने जाता है, तो कोई उससे भी आगे दिल्ली तक. मिट्टी के घरों की कतार के बीच एक नए बने हरे रंग के पक्के मकान के आगे से गुजरते हुए पता चला कि इस घर का मालिक दिल्ली कमाने चला गया, उसी कमाई से उसने घर बनवाया है। इन इलाकों को देखकर महसूस होता है कि विकास का साइज एक्स्ट्रा स्मॉल है. ये इतना संकरा है कि प्रदेश की राजधानी के 200 किलोमीटर की परिधि में भी सड़क और पानी जैसी बेहद बुनियादी सुविधाएं अब तक नहीं पहुंच पाई हैं. वंचित वर्ग आगे बढ़ने और जीवनस्तर सुधारने के लिए शिक्षा से भी आस नहीं लगा सकता क्योंकि उच्च शिक्षा अब भी उनकी पहुंच से बहुत दूर है. रोजगार के नाम पर भी अप्रशिक्षित श्रम के साथ बड़े शहरों में पलायन का विकल्प बचता है। मैं लौटते वक्त फिर से लोकसभा चुनाव का जिक्र छेड़ती हूं. ग्रामीण कहते हैं कि वो वोट देने जरूर जाएंगे. फिर खुद ही वजह बताते हुए कहते हैं, “हर बार बस उम्मीद के नाम पर वोट देते हैं, कि क्या पता इस बार हमारा काम हो ही जाए.”

वापसी के रास्ते में एक चौक पर दुकान से ठंडे पानी की बोतल खरीदी. पीते हुए साथ वाले एक ग्रामीण ने बताया की “शहर जाते हैं, तो कभी-कभी बहुत प्यास लगने पर पानी की 20 रुपये वाली बोतल खरीदते हैं. उस पानी का स्वाद कितना अच्छा होता है! हमारे गांव के गड्ढे के पानी का स्वाद उससे एकदम अलग है!” बस यही कहानी है मध्यप्रदेश के राजनेताओ की योजना की और वोट बैंक की ?

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