आखिर क्यों आदर्श आचार संहिता की कोई नज़ीर पेश होती?

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प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)

     आखिर क्यों आदर्श आचार संहिता की कोई        नज़ीर पेश होती?

बीते कुछ सालों में देश में जितने भी चुनाव हुए हैं, चाहे वो लोकसभा के हों या विधानसभा के, सब में आचार संहिता उल्लंघन के मामले सामने आते रहे हैं। राजनीतिक पार्टियां आमतौर इसे बहुत गंभीरता से नहीं लेतीं। उल्लंघन करने पर कार्रवाई तो होती है, पर वो ऐसी नहीं होती की कोई नज़ीर पेश कर सके चुनाव आयोग जैसे ही विधानसभा या लोकसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान करता है वैसे ही मॉडल कोड ऑफ़ कंडक्ट यानी आदर्श आचार संहिता प्रभावी हो जाती है। आदर्श आचार संहिता उस चुनाव की प्रक्रिया पूरी होने तक प्रभावी रहती है। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए चुनाव आयोग ने कुछ नियम बनाए हैं। इन नियमों को ही आचार संहिता कहा जाता है।अगर कोई राजनीतिक दल या उम्मीदवार आचार संहिता के उल्लंघन का दोषी पाया जाता है तो चुनाव आयोग उनके खिलाफ़ नियमानुसार कार्रवाई कर सकता है। इनमें दोषी के चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगाने तक की कार्रवाई शामिल है, ज़रूरी होने पर आयोग आपराधिक मुक़दमा भी दर्ज करा सकता है। यहां तक कि दोषी पाए जाने पर जेल की सज़ा भी हो सकती है

आदर्श आचार संहिता (एमसीसी) भारत के चुनाव आयोग द्वारा राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिए उनके चुनाव प्रचार में मर्यादा बनाए रखने के लिए जारी दिशानिर्देशों का एक सेट है। इसमें चुनाव से पहले नेताओं और पार्टियों के लिए क्या करें और क्या न करें की एक सूची दी गई है। आदर्श आचार संहिता चुनावी धोखाधड़ी की समस्याओं से निपटने का प्रयास करती है और यह गारंटी देती है कि चुनाव निष्पक्ष और कानूनी रूप से आयोजित किए जाते हैं। आदर्श आचार संहिता राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को ऐसी किसी भी गतिविधि में भाग लेने से रोकती है जो पहले से मौजूद तनाव को बढ़ा सकती है, दुश्मनी को बढ़ावा दे सकती है। एक दूसरे के प्रति, और विभिन्न जातियों, समुदायों, धार्मिक और भाषाई समूहों के बीच संघर्ष को जन्म देता है।

एमसीसी राजनीतिक दलों से अपने मंच की स्पष्ट व्याख्या और चुनाव के दौरान आवश्यक धन जुटाने की योजना की सामान्य रूपरेखा प्रदान करने का आग्रह करता है। आदर्श आचार संहिता का उद्देश्य सत्ता में मौजूद पार्टी द्वारा अपनी उपलब्धियों का प्रचार करने के लिए सरकारी मशीनरी के उपयोग पर प्रतिबंध लगाकर असमानताओं को कम करना है। आचार संहिता लगने के बाद किसी भी तरह की सरकारी घोषणाएं, योजनाओं की घोषणा, परियोजनाओं का लोकार्पण, शिलान्यास या भूमिपूजन के कार्यक्रम नहीं किया जा सकता। सरकारी गाड़ी, सरकारी विमान या सरकारी बंगले का इस्तेमाल चुनाव प्रचार के लिए नहीं किया जा सकता है। किसी भी पार्टी, प्रत्याशी या समर्थकों को रैली या जुलूस निकालने या चुनावी सभा करने से पहले पुलिस से अनुमति लेनी होगी। कोई भी राजनीतिक दल जाति या धर्म के आधार पर मतदाताओं से वोट नहीं मांग सकता न ही वह ऐसी किसी गतिविधि में शामिल हो सकता है जिससे धर्म या जाति के आधार पर मतभेद या तनाव पैदा हो। राजनीतिक दलों की आलोचना के दौरान उनकी नीतियों, कार्यक्रम, पूर्व रिकार्ड और कार्य तक ही सीमित होनी चाहिए। अनुमति के बिना किसी की ज़मीन, घर, परिसर की दीवारों पर पार्टी के झंडे, बैनर आदि नहीं लगाए जा सकते। मतदान के दिन शराब की दुकानें बंद रहती हैं। वोटरों को शराब या पैसे बाँटने पर भी मनाही होती है।

शमतदान के दौरान ये सुनिश्चित करना होता है कि मतदान बूथों के पास राजनीतिक दल और उम्मीदवारों के शिविर में भीड़ इकट्ठा न हों। शिविर साधारण हों और वहां किसी भी तरह की प्रचार सामग्री मौजूद न हो। कोई भी खाद्य सामग्री नहीं परोसी जाए। सभी दल और उम्मीदवार ऐसी सभी गतिविधियों से परहेज करें जो चुनावी आचार संहिता के तहत ‘भ्रष्ट आचरण’ और अपराध की श्रेणी में आते हैं- जैसे मतदाताओं को पैसे देना, मतदाताओं को डराना-धमकाना, फ़र्ज़ी वोट डलवाना, मतदान केंद्रों से 100 मीटर के दायरे में प्रचार करना, मतदान से पहले प्रचार बंद हो जाने के बाद भी प्रचार करना और मतदाताओं को मतदान केंद्रों तक ले जाने और वापस लाने के लिए वाहन उपलब्ध कराना। राजनीतिक कार्यक्रमों पर नज़र रखने के लिए चुनाव आयोग पर्यवेक्षक या ऑब्ज़रवर नियुक्त करता है। आचार संहिता लागू होने के बाद चुनाव आयोग की इजाज़त के बिना किसी सरकारी अधिकारी या कर्मचारी का तबादला नहीं किया जा सकता है।

भारत के चुनाव आयोग को 1968 के चुनाव चिह्न आदेश के माध्यम से आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करने पर किसी पार्टी की मान्यता निलंबित करने या वापस लेने का अधिकार है। इस कार्रवाई के परिणामस्वरूप पार्टी को अपना आरक्षित प्रतीक खोना पड़ सकता है, जिससे उसकी चुनावी भागीदारी प्रभावित हो सकती है। ईसीआई को सभी पार्टियों और उम्मीदवारों पर एमसीसी लागू करने में तटस्थ रहना चाहिए। एमसीसी को कानूनी समर्थन देने के लिए चुनाव सुधारों पर स्थायी समिति के प्रस्ताव की जांच और जांच करना आवश्यक है।नई प्रौद्योगिकियों के दुरुपयोग से निपटने के लिए एमसीसी में संशोधन: फेसबुक और व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्मों के दुरुपयोग को संबोधित करने के लिए, जिनका उपयोग चुनाव के दिन जनता की राय को प्रभावित करने के लिए किया जाता है, एमसीसी को संशोधित किया जाना चाहिए, और ईसीआई की क्षमता का विस्तार किया जाना चाहिए।

एमसीसी उल्लंघन के मामलों को जल्द से जल्द निपटाने के लिए विशेष फास्ट-ट्रैक अदालतें बनाई जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 दिशानिर्देशों के उल्लंघन के लिए आपराधिक कार्यवाही शुरू करने के लिए ईसीआई को निर्देश भी दे सकता है। हालाँकि एमसीसी के पास कोई वैधानिक समर्थन नहीं है, लेकिन चुनाव आयोग द्वारा इसके सख्त कार्यान्वयन के कारण पिछले दशक में इसे ताकत हासिल हुई है। इन उपायों को लागू करके, भारत का चुनाव आयोग देश में चुनावों की अखंडता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने, आदर्श आचार संहिता को बनाए रखने में अपनी भूमिका को और मजबूत कर सकता है। सभी नियमों को जानने-समझने के बाद रह जाता है एक सवाल कि क्या आदर्श आचार संहिता का पालन ठीक से होता है? वैसे तो आचार संहिता को लेकर कोई पुख्ता नियम नहीं हैं। इसका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ पारदर्शी और निष्पक्ष ढंग से चुनाव करवाना है। इसे लागू करने के लिए चुनाव आयोग नैतिक मंजूरी या निंदा का उपयोग करता है। चुनाव आयोग को इसके तहत कुछ शक्तियां मिली हुई हैं जैसे लोकसभा चुनाव 2024 की घोषणा होने के बाद आयोग ने बड़े पैमाने पर अधिकारियों के तबादले किये हैं। बीते कुछ सालों में देश में जितने भी चुनाव हुए हैं, चाहे वो लोकसभा के हों या विधानसभा के, सब में आचार संहिता उल्लंघन के मामले सामने आते रहे हैं। राजनीतिक पार्टियां आमतौर इसे बहुत गंभीरता से नहीं लेतीं। उल्लंघन करने पर कार्रवाई तो होती है, पर वो ऐसी नहीं होती की कोई नज़ीर पेश कर सके।

 

 

 

 

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